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________________ मूलाराधना ५७९ विसहिदु जे विसोतुं । विप्पवासो दूरदेशांतरगमनं मरणं वा । इति गुणानुशिष्टिः । सूत्रतः । ९४ । अंकतः १११ ॥ अर्थ -- जिनसे शिष्याको ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तपकी प्राप्ति होती हैं. जो सुख और दुःखोंमें समान हैं अर्थात् रागद्वेषरहित हैं. परीषहोंसे जिनकी ध्यानैकाग्रता में बाधा आती नहीं है. ऐसे श्रेष्ठ आयकर चिरकालीन वियोग सहन करना अतिशय दुष्कर है, एवं परिसमाप्य अनुशासनाधिकारं परगणचयां निरूपयति---- एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं परिहरतो || आराधणाणिमित्तं परगणगमणे मई कुणदि ॥ ३८४ ॥ आपृच्छति गणं सर्व चतुरंगमहोगमम् ॥ करोत्याराधनाकांक्षी गंतु परगणं प्रति ।। ३९५ ।। विजयोदय एवं च्छित्ता आपृच्छय । सगणं स्वगणं | अब्भुज पहिलो आराहणानिमित्तं आराधनानिमित्तं । परगागमणे महं कुह परागमने मति करोति । अथ तथाभावितश्रामण्यस्य सद्धेखनापरिणतम्यागणस्य मणिनः पुन सिद्धयर्थं परगणगमन क्रमं सप्तदशभिर्गाथाभिरुपदिशति सत्र वर्तमानः । रामप मूलारा- आपुच्छिसा आच्छय संवधित्यर्थः । अनुज अभ्युक्तं उद्यमाभिमुखं अवलमित्यर्थः । पाहतो प्रकर्षेण रत्नश्रये प्रवर्तमानः ॥ इस प्रकार अनुशासनाधिकारकी समाप्ति करके आचार्य परगणचर्या नामक अधिकारका निरूपण करते हैंअर्थ - इस प्रकार अपने गणको पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्नसे प्रवृत्ति करनेवाले वे आचार्य आराधना के निमित्त परगण में गमन करनेकी इच्छा मनमें धारण करते हैं. किमर्थं परणप्रवेशं करोति इत्याशंकायां स्वगणावस्थाने दोषमात्र सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणाड़ी य ॥ णिन्भयसिणेह कालुगिणझाणविग्धो य असमाधी ॥ १८५ ॥ माश्वासः
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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