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मूलाराना
आश्थामः
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यह मंज्ञा दी है. ये सर्व महामुनिगण गुरुके समीपही छचस्थकी रत्नत्रयशुद्धि प्रायश्रित्तसे होती है ऐसा कहते हैं, रत्नत्रयमें निर्मलता उत्पन्न होनेसे यह आत्मा रत्नत्रयमय होता है. इस लिये छद्मस्थाने प्रायश्चित्त धारण कर विशुद्ध होना चाहिये.
यो न येत्यतिवारजातमलनिराकरणक्रम सोऽम्यस्म कथास्तु स्वग्न यत्ति स कस्मादसौ परस्मै कथयतितदुक्तं वाचरतीत्यार
जह सुकुसलो बि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं ॥ वेज्जस्स तरस सोच्चा सो वि य पडिकम्ममारभइ ॥ ५२८ ॥ कुशलोऽपि यथा वैद्यः स्वं निगचातुरो गदम् ॥
वैद्यस्य परतो ज्ञात्वा विदधाति परिक्रियाम् ॥ ५४८॥ विजयोदया-जह सुकुसलो वि बेज्जो यथा सुष्टु कुशलोऽपि वैद्यः । व्याधिनिरासे आदुरो भातुरः। अण्णास्स कदेव अन्यस्मै कथयति । रोग व्याधि । एवंभूतो मम व्याधिः, चिकित्सा कुर्विति । बेअस्स तस्स सोया तस्य वैद्यस्य श्रुत्वा वचनं । सो विय सोपि च अनारो वैद्यः । पडिक्कममारभदि प्रतिक्रियामारभते ॥
उक्तमेवार्थ दृष्टोत्तोपन्यासपुरस्सरं वयितुं गाथाद्वयमाह
मूलारा-सुकुसलो वि व्याधीनां निदाने, लिंगे, चिकित्सायां पुनर्भवनिरोधे च सुतरां प्रवीणोऽपि । तस्स तस्य स्त्रव्याधि । कथं अविषयीकृतस्य । सोच्वा श्रुत्वा वाक्यमिति शेषः । सो रोगातों वैद्यः । यि य अपि च । आरभते पेत्यर्थः । पडिकम्म प्रतीकारं।
जो मुनि अतिचारसे उत्पन्न हुए मलका निवारण करनका क्रम जानता नहीं है उसने दूसरोंको अपने अपराध कहना योग्य है परंतु जो अपराधोंका प्रायश्चित्त स्वयं जानता है उसको अपने दोष दुसरेको कहनेकी जरूरत नहीं है. वह क्यों दूसराको स्वापराध कहता है और क्यों उनका दिया हुआ प्रायश्चित आचरता है इस प्रश्नका उत्तर
अर्थ--- जैसा अच्छा विद्वान भी वैध स्वयं बीमार पडनेपर अपने रोगका स्वरूप दुसरे बैद्यको कहता है. अर्थात मेरे रोगका स्वरूप ऐसा है और इसके ऊपर अप औषध योजना करा. रोगीचैद्यका यह भाषण सुनकर नीरोग वैद्य उसकी चिकित्सा कर औषध योजना करता है.
కందిరం
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