________________
भूलाराधना
आश्वास
वचनगुमि--असत्य, मनको दुःखित करनेवाली और कठोर वाणीको मुंहसे न निकालना. तथा मिथ्यात्व और असंयम उत्पन्न करनेवाली वाणी मुंहसे न निकालना वचनगुप्ति है.
कायगुप्ति-साबधान होकर देखभाल न की हुई जमीनपर तथा न झाडी हुई अप्रासुक जमीनपर गमन करना, उससे वस्तु उठा लेना रखना, सोना बैठना इत्यादि क्रियाओं का त्याग करना यह कायगुप्ति है अथवा शरीरपरसे ममत्व छोडना-अर्थात कायोत्सर्ग करना यह भी कायगुसि है. ये तीनो गुप्तियां भी चारिखविनय हैं.
समिति-प्राणिऑको पीडा न होवे ऐसा विचार करके दयाभावसे अपनी सर्व प्रवृत्ति जो करता है वह साधु समितिधारक माना जाता है, 'प्राणिपीहापरिहारादरक्तः सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः' यह समितीका लक्षण है. इस लक्षणमें जो समितिका सम्पर यह विशेषण है उसका भाव ऐसा है-जीवोंके भेद और उनके स्वरूप के ज्ञान के साथ श्रद्धान गुण सहित जो पद Tetri, रखना, मन करना, बोलना इत्यादिक प्रवृत्ति की जाती है वहीं सम्यक है. ईर्यासमिति, भापासमिति, एपणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और एषणासमिति ऐमी पांच समितियां हैं,
शंका-ईर्यादिसमितिऑकी वाग्गुप्ति और कायगुप्ति इन दोनोंसे कुछ विशेषता नहीं है, अतः दोनोंको अलग अलग दिखाना व्यर्थ है. प्राणिऑको पीडा करनेवाली प्रवृत्तिाका त्याग करना यह कायगुप्ति है, और इंगों समिति में भी प्राणिपीडा करनेवाली देह प्रवृत्तियां त्यागी जाती है. अनः दोनोंमें अविशेक्षा ही मालम होता है..
उत्तर-गुप्नियां नियतिरूप होती हैं और प्रवृत्तिरूप नियाको समिनि कहते हैं एसा होनीम विशप है, माणपीठापरिहारपतक गमन करना, बोलना, आहार लेना, कोई चीज उटाना, रखना मलमत्र न्यागना इन सब क्रियाओंमें प्रवृति करना समिति है. इस प्रकार चारित्र विनय संक्षेपसे समझलेना चाहिये.
शंका-इंद्रिया और कपायोंका अपणिधान मनोगुप्तिरूप ही है इसलिये उनका पृथक् कथन क्यों किया है ?
उत्तर-वचनगुप्ति और कायगुप्ति इनका ही गुप्तिरूपसे ग्रहण किया है ऐसा समझो. अथवा रागद्वेप, मिथ्यात्व वगैरह अशुभ परिणामोंका त्याग करना यह मनोगुप्ति है. यह सामान्य है और इंद्रिय कपापोंकी तरफ आत्माका झुकाव न होना अर्थात् इंद्रियकपायरूपपरिणति आत्माकी न होना यह उसका विशेष है. सामान्यसे विशेष सर्वथा भिन्न नहीं है, कथंचिद्भित्र है, अतः यहां पुनरुक्तिदोष नहीं है, अर्थात् मनोगुप्तिसे
SHOWSAG34
२७०