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मूलाराधना
भावासः
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आती है. वैसे ये क्रोधादि कषाय आत्मामें ज्ञानावरणादि कर्मको स्थिर करते हैं. अर्थात् कपायसे ही कमकी काल- स्थिति बहती है. ऐसे कषाय और इंद्रियों में मनकी एकाग्रता न होने देना चाहिय अर्थात इंद्रियोंके विषयमें प्रवृत्ति होनेसे आत्मामें राग द्वेप उत्पन्न होजाते हैं. ये न होने देखें, रागद्वेषरूप परिणति आन्मामें न होना यह इंद्रिया प्राणिधान है. और कषायवश न होकर आत्माकी ज्ञानशुद्धि और दर्शन शुद्धि कायम रखना यह कषायाप्रणिधान
गुप्ति-संसारके कारणोंसे आरमाकारणा करना बहुगु िहै इसलिन मारिन, कालपरिवर्तन, भावपरिवर्तन और भवपरिवर्तन ऐसे संसारके पांच भेद हैं ( इसका आगे ग्रंथकार वर्णन करेंगे. ) ज्ञानावरणादि कर्म समूह समारका कारण है. इससे आत्माका रक्षण करना यह गुप्ति है. 'संसारकारणादात्मनो गोपनं गुप्तिः ' यह गुप्तिका लक्षणा हैं. 'भावे तिः' इस सूबमे भाव अर्थम क्ति प्रत्यय जोड देनेसे गुप्ति यह शब्द सिद्ध हुआ है. अथवा अपादानकारकमें भी इस गुप्तिशब्दकी सिद्धि होती है. 'यतो गोपन सा गृप्तिः ' अर्थात् संसारकारणोंमे आनमाका बचाव करना वह गुप्ति है. किंवा कर्ता कारकमें भी यह शब्द सिद्ध होता है, 'गोपयतीनि गुप्तिः' आत्मा ही संसारकारणोंसे अपनको बचाता है अतः आत्मा ही गुप्ति है. यहां कर्तृकारकमें गुप् धातू के आगे तिन् प्रत्यय जोड देनेसे गुप्ति शब्द सिद्ध होता है. इस रीतीसे गुप्तिशब्दके अर्थका विवेचन किया है.
गुप्तिका स्वरूप क्या है ? उत्तर- सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः 'शरीर, वचन और मनकी यथेष्ट प्रवृत्तिको रोकना यह गुप्ति है. सम्यक यह विशेषण योगनिग्रहका है, यह महान् तपस्वी है ऐसा समझकर लोक मेरी पूजा करेंगे. मेरी सर्वत्र कीर्ति फैलेगी, ऐसी अपेक्षा मनमें धारण करके जो योगनिग्रह किया जाता है अथवा पारलौकिक गुखकी इच्छासे जो योगनिग्रह किया जाता है उसका निषेध करनेकेलिय सम्यक् यह विशेषण योगनिग्रह शब्दके पीछे जोडा है. उपर्युक्त इन्छाओंका त्याग करके जो गुप्ति पाली जाती है वह मुंवरका कारण होती है अन्यथा नहीं. ऐसा आचार्योंका उपदेश है.
मनोगुप्ति -राग और कोपसे अलिप्त ऐसे भानसिकज्ञानको मनोगुरित कहते हैं. ग्रंथकार भी आगे 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि त मोगुती' इस सूत्र में मनोगुप्तीका लक्षण कहेंगे. मनमें जो रागादि विकार उत्पन्न होते हैं उनका नियमन करना मनोगुप्ति है ऐसा समझना चाहिये.
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