SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बलाराधना आश्वास - LA I Mia...+ AAAAMRATBHELORADASA लकडी तोडता है तब वह कुन्हाडीका साहाय्य लेता है. विना कुन्हाइकि वह लकडी नहीं काट सकता है. इसलिये जैस देवदन कर्ता और कुत्तहाडी करण है वैसे आत्मा कर्ता है क्योंकि वह पदार्थोंको जाननेकी क्रिया करता है और इंद्रियां पदार्थ जानने में आत्माको माहाय्य करती हैं इसलिये वे करण हैं. यहां इंद्रियोंके द्रव्गइंद्रिय और भाव इंद्रिय म दो भेद कहे हैं. द्रव्येन्द्रिय-मसूर, यवनाल, खुरपा इत्यादि पदाथोंके आकारके समान नेत्र, कर्ण, जीभ वगरे द्रव्यन्द्रियांका आकार है. वे निवृत्ति और उपकरणसे युक्त रहती है. और वे शरीरके अवयवरुप मानी गयी है. तात्पर्य यह है कि, आत्माके प्रदेश इन्द्रियाकार हो जाना यह अभ्यंतगनिवृत्ति है, और उसके ऊपर पुद्गलोकी जो इन्द्रियाकार साक्षी है यह माहमिति निरिओगा जिससे रक्षण होता है वह उपकरण है. उसके भी दो भेद है, बाम उपकरण व अभ्यंतर उपकरण. जैसे नेत्रमें तारका, काला और सफेत जो भाग है वह अभ्यंतर उपकरण है. अक्षिपत्र-पापनी, मोहें वगैरह बाह्योपकरण है, ज्ञान के साधनभृत इंद्रियाको जो सहायप्रदान करते है उसको उपकरण कहते हैं. यह द्रव्येन्द्रियका स्वरूप है, मावेन्द्रिय-आत्मामें ज्ञानावरण कर्मका जो विशिष्ट क्षयोपशम प्रगट हुवा है वह तथा द्रव्येन्द्रियके सहारेसे रूपादिकाका जो ज्ञान होता है वह भाद्रिय है। यहां मनचाहे रूपादि पदार्थोंका सानिध्य होनेसे जो रागद्वेपसहित ज्ञान होता है वह इंद्रियशब्दका अर्थ है, . पाय- कान्ति हिंसंति आत्मक्षेत्रं इति कषायाः 'जो आत्माका घात करते हैं वे कपाय हैं. क्रोधादिक विकार आत्माका अहित करते हैं अतः उनको कषाय कहते हैं, अथवा वृक्षोंकी छालीसे जो रस निकलता है उसको ऋयाय कहते हैं. वह चिकण होनेसे वस्त्रमें लगनेपर निकलता नहीं है. उपयुक्त उपमाके द्वारा क्रोधादिकोंको भी कषाय कहते हैं. जैसे कपायरस यखको लगनेपर उसका सफेतपना, स्वच्छता नष्ट होते हैं और वह रस गी वस्त्रसे निकालना अशक्य है. वैसे क्रोधादिकपाय भी आत्माके ज्ञान और दर्शनगुणकी निर्मलताको नष्ट करते हैं, और इन रुपार्योंका आत्माके साथ संबंध होनेपर वहांसे बड़े कष्टसे दूर होसकते हैं. जैसे कपायरससे वस्त्रादिकोंमें ऋद्धता
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy