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________________ मूलाराधना आश्वासः १६६२ SOTES विजयोदया-कम्मरस ण हुयेज्ज परिमोक्खो अननुभूतफलस्य कर्मणो नैष कस्य चित् मोक्षो भवति इति ततः फल प्रदायापयाति । एतेन विपाकनिर्जरोका, होज्जव तस्स कम्मस्स विणासो भवेद्वा तस्य कर्मणो विनाशः समिाणा इजामाणस्स तपोऽशिना दह्यमानस्य पतेन कृतं कर्म तत्फलमदत्वा न निवर्तत इत्येतन्निरस्तं । उक्कमेवार्थ उत्सर्गापवादाम्यां दृढयति मूलारा-अयेविदफटस्स अमुक्तफलस्य । एतेन वफलं प्रवायापयाति कर्मेति विपाकनिर्जरा सामान्ये नोक्ता । उज्झमाणस नि:जीक्रियमाणस्य । एतेन कृतं कर्म यत्तत्फलमदत्वा न निवर्तते इत्येकान्तो निरस्तः ॥ वक्तं च अनिर्दिष्टफल कर्म तपसा दाते परं ।। ___ सस्य हुताशनेनेव पहुभेदमुपार्जितम् ।। अर्थ--जिस कर्मका फल जीवकेद्वारा नहीं भोगा गया है ऐसा कर्म नष्ट नहीं होता है. अर्थात् कर्म अपना फल जीवको देकर ही चला जाता है. इस विवेचनसे विपाक निर्जरा कही गयी. परंतु तपोग्नीस जो कर्म दग्ध होता है वह कर्म आत्माको फल न देकर ही नष्ट होता है. इससे जो कर्म इस जीवने किया है वह फल जबतक नहीं देता है, तबतक नष्ट नहीं होता हैं. ऐसा एकान्त मत खंडित होता है. तात्पर्य यह है कि, विषाकनिर्जरा जिस कमकी होती है वह कर्म आत्माको फल देता है, अविपाक निर्जराका कम फल नहीं देना है. डहिऊण जहा अग्गी विद्धंसदि सुबहुगपि तणरासी । बिहंसेदि तबममी तह कम्मतणं सुबहुगंपि ।। १८५१ ।। तपसादीयमानेन नाश्यते कर्मसंचयः ।। __ आशुशुक्षपिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तणोत्करः ।। १९२३ ।। घिजयोदया---इहिऊण जहा अग्मी रथाग्निर्दग्ध्वा नाशयत्ति मदांतमपि तृणराशि तया तपोग्निः सुमहदपि कर्मतृणं विनाशयति ॥ तपसः कर्मशातनसामर्थ्य समर्थयतेमूल्टाग-स्पष्टम् । उक्तं च तत्कालयपि तद्धयानं स्वदेकाममात्मनि ॥ उःकर्मोरचयं भिवादळ शैलमिव क्षणात् ।। १६६२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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