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________________ चलाराधना ३३३ जिसको अपने ज्ञानसे जाननेमें असमर्थ हैं, जो बचन के अविषय है, अपराधीन है, जिसमें कभी न्यूनताका अनुभव आता ही नहीं हैं, ऐसा अहभिद्रोंका सुख भी हमने बहुतकालतक भोगा है, अतः मनुष्योंके तुच्छ संपत्ति सुखमें क्यों उत्कंठित हो रहे हैं. यह मनुजभोगसंपदा दुष्ट जनकी मैत्रीके समान विचित्र दुःखोंका संबंध उत्पन्न करती है, चंचल है, पुण्यका समूह जैसा पूर्व कर्मके अधीन होता है वैसे यह भोग संपदा भी पराधीनही है. कुकनीकी कृति में अल्प ही अर्थ भरा रहता है वैसे इस मनुजसुखमें अल्प प्रयोजनही सिद्ध होता है. दूर भव्य जीवका मुक्तिमार्ग जैसे अनेक विघ्नोंसे रुका रहताही वैसा यह मनुजसुख भी अनेक विपत्तिओसे घिरा हुवा है, यह मनुजवैभव अनंतकालतक मैने भोगा है. इस प्रकार प्रभु वैराग्यभावना में लीन हुये हैं ऐसे समय में ब्रह्मस्वर्गसे शंखके समान शुभदेह जिनका है ऐसे लोकांतिक देव जिनेश्वर भगवान अपनेको और भव्य जनों को संसद से निकालने के लिये उक्त हुए ऐसा अवधिज्ञानरूप नेत्रसे जानकर प्रभुके पास आते हैं. और अनेक भव्य जीवोंपर जिससे अनुग्रह होगा ऐसा यह महाकार्य प्रभूने अपने हाथमें लिया है. आपके इस कार्यमें हम लोगों की भी सम्मति है. पूज्य पुरुषोंकी पूजा का उलंघन करनेसे स्वार्थहानि होती है अर्थात् इस स्वर्गादि संपदाकी प्राप्ति नहीं होती है, ऐसा मनमें विचार कर ये लोकांनिक देव आकाशसे नीचे उतरकर मधुके पास महा आदरसे बैठकर प्रभुकी इसप्रकार प्रार्थना करते हैं- हे भट्टारक ! आपका यह उद्योग प्रशंसनीय है. कल्पवृक्ष प्रत्युपकारकी अपेक्षा न रखकर जगतपर अनुग्रह करते हैं. हे प्रभो आप महापुरुष है अतः आपभी कल्पवृक्षके समान जगत पर अनुग्रह करो. fate अर्थात् भव्य जीवों के ज्ञानरुपी लोचन मिथ्यात्वरूपी तिमिररोगसे व्याप्त होगये हैं. अतः वे खोटे रास्तेपर जा रहे हैं और कुमतिरूप खड्डे में गिर रहे हैं. कुमतिरूप से निकलनेकी इच्छा मनमें होते हुये भी असमर्थ होनेसे क्लेश पाने लगे हैं. दीर्घ और दृढ ऐसे निर्दोष सम्यग्दर्शनरूपी डोरेसे आप उनको कुगतिमेंसे निकालकर आपके दिखाये हुये विशाल मोक्षमार्गपर स्थिर करो जिससे वे अनंतज्ञानात्मक सुखकी प्राप्ति होनेसे सुखी होंगे. इस प्रकार स्तुति करके सारस्वतादिक लौकांतिकदेव अपने स्थानको चले जाते हैं. भगवान के वैराग्यरूपी वायुसे इंद्रका सिंहासन कंपित होता है. तच प्र महाकार्यका प्रारंभ करनेका विचार कर रहे हैं ऐसा इंद्र अवधिज्ञानसे जानकर सिंहासनसे बडे आदर से नीचे उतरकर प्रभु जिस दिशा में मुंह कर आश्वासः २ ३३३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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