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________________ आवासः महाराषना SE यस्तु सार और असार दोनो तरहकी होती है, परंतु उससे कुछ कर्मबंध विशपता उत्पन्न नहीं होती. किंतु उस वस्तु के संगसे उत्पन्न होनेवाली मूर्छा अर्थात ममता कर्मबंधका निमित्त है. और यही ममत, आत्मामें शुभाशुभ परिणामोंको निमित्त होती है. इसी अभिप्रायको आचार्य विशद करते हैं अर्थ-तृणमें भी लोम उत्पन्न होनेसे वह पापबंध उत्पन्न करता है. तब इतर सारयुक्त वस्तुओं में उसकी उत्पत्ति होनेपर पापबंध अवश्य होगाही. परंतु मन यदि निर्लोभी है तो शरीरपर मुकुटादि परिग्रह होने पर भी उस को पापबंध नहीं होता है. लोभकायका अभाव जब होता है. तब किसीने जबरदस्तीसे मुकुटादि पहनाये तो भी वह परिग्रह उसको पापकर्मसे बद्ध नहीं कर सकता है. ऐसा इस माथाका अभिप्राय है. तलोकेण वि चित्तस्स णिव्युदी णस्थि लोमघत्थरस ।। संतुट्ठो हु अलोभो लमदि दरिदो वि णिवाणं ॥ १३९१ ॥ मुखं त्रैलोक्यलाभेऽपि नासंतुष्टस्य जायते ।। संतुष्टो लभते सौख्यं दरिद्रोपि निरंतरम् ।। १४५६ ॥ - विजयोदया--सेकोकण वि त्रैलोक्यनापि चित्तस्स णिचुदी पथि चित्तस्य नितिनास्ति । लोभत्थरस लोभमस्तस्य । संतुट्ठो संतुएः धेन के नचिकस्तुना शरीर स्थिति हेतुभूतेन । अलोभो हव्यगतमूरि हितः । लमदि लभते । दरिहो पि दरिद्रोऽपि । णित्याणं निर्वाणं । संतोषायतचित्ता नितिन द्रव्यायत्ता, सत्यपि द्रव्ये महति असंतुष्टस्य दृश्ये महति दुःखासिका। मूलारा--तलोकेण विलोक्येनापि लब्धेन । णिव्वुदी तृतिः । संतुट्ठो येन केनचिद्वस्तुना शरीरस्थितिहेतुभूतेन धृति प्रातः । अलोमो द्रव्यगतमूर्छारहितः । णित्याएं सुखं । संतोषायत्ता चित्तनिवृतिर्न ट्रन्यायत्ता, द्रव्ये हि महत्यपि सत्यसंतुष्टस्य महादुःखासिका स्यात् ।। अर्थ--लोभग्रस्त मनुष्यको त्रैलोक्यकी प्राप्ति होनेपर भी संनोप नहीं होता है. जो जो शरीरको सुख देनेवाली वस्तु प्राप्त होगी उससे उसका लोभ वदताही जाता है. जिससे शरीर स्थिर रहेगा ऐसी किसी भी वस्तुसे जो मनुष्य संतुष्ट है ममता रहित है वह चाहे दरिद्री हो तो भी उसीको समाधानवृत्ति प्राप्त होती है. संतोषके स्वाधीन १३३१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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