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________________ मृगाराधना कष्ट देनेवाला है. इससे आत्माको केवल श्रम ही होते हैं. ऐसे धर्मसे क्या प्रयोजन हैं ऐसी बह क्षपक निंदा करते करते मरण करेगा और असमाधिसे मरणको प्राप्त होगा. आश्वासा संधारपदोस वा गिभच्छिज्जतओ णिगच्छेज्जा ॥ कुव्वंते उडाहो णिच्चुभते विकिंते वा || ४४ ॥ हित्वा निर्भय॑मानोऽसौ संस्तरं गन्तुमिच्छसि ।। पूत्कुर्वत्ययशस्तत्र त्याज्यमाने व जायते ॥ ४५३ ।। बिजयोदया--संगापरसं या बुर से की शिकाभिगो णिगच्छेच रोदन पत्कार घा कुर्वन्तं यदि निर्भर्सयन्ति निर्यायात् । कुवते पूत्कुति सति क्षपके । उदाहो अयशो धर्मस्य भवति । णिकखुम्भंते यहिर्नेिः सरणे । विकिंते वा पृथक्करणे वा । उदाहो होदि धर्मयूषणो भवति । एवम गृहीतार्थः प्रतिकारानभिलो नाशयति क्षपकम् ॥ मूलारा-संथारपदोसं आचार्यप्रद्वेपं करोति कुणदीत्यबाहारान् । णितच्छेज्ज निःसरंदबहिः कुर्थतो उन हो पुत्कुर्वति सति क्षपके अयशोऽधर्मश्च भवति । णिभिमते बहिनिःसरणे । विकिसे पृथक्करणे | क्षपकस्म उडाहो मवतीति संबंधः । णिमच्छिजंसगो गिगच्छेज्ज कुष्यतो अदिमिति पाठ निर्भीमानको निर्गच्छत्कुर्वप्रकीर्तिमिति व्याख्येयम् णिमछुसो प्रवेश्यमानो विकिते हन्ति परं स्वं वेति च व्यारूयेयम् । अर्थ-वह क्षपक संस्तरकी निंदा करेगा अथवा आचार्यकी निंदा करेगा. यदि वह क्षपक, रोनेपर, जोरसे चिल्लानेपर यदि उसकी निंदा की तो वह संघमे भाग जावंगा, जिससे धर्म में अपयश होनेकी संभावना रहती है. एमे क्षपकको यदि संघस पृथक किया जावेगा तो धर्ममें दपण लगता है. इतने विवेचनमे अल्पज्ञ आचार्य क्षषक. का नाश कर देता है यह सिद्ध होता है. गृहीतार्थः पुनः किं करोतीति दाह-- गीदत्थो पुण खवयस्स कुणदि विधिणा समाधिकरणाणि ॥ कण्णाहुदीहिं उबढोहदो य पज्जलइ जमाणम्गी ।। १४१ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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