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________________ मूलारा ४१३ 1.V विमुह्यत्युपसर्गे वो सत्त्वभावनया यतिः ॥ युद्धभावनया युद्धे भीषणेऽपि भटो यथा ॥ १९७ ॥ विजयोदया - देवेोई देवैखाखितोऽपि । सु स्फुटं । कृतापराधोऽतिभीमरूपैः 1 वा अथवा तो ततः । सत्यभावनया सोददुःखात् वह भरं विभओ सयले वहति भरं संयमस्य निर्भयः सकलं । मृतेर्भीमरूपदर्शनाथ भीतिरुपजायते भीतस्य प्रच्युतरत्नत्रयस्य तदतिदुखाएं । तदनवास्या न कर्म निमूर्लनं शक्यं कर्त्तुं । अनासादितमलयानि च कर्माणि विचित्रे यातयंत्यात्मानं । ततो भीतिरेवाने कानर्थमूलमिति निश्चित्य सा प्रागेव निरसनीया । तथाहि मुलारा-मीसिदो भयं नीतः । दिया दिया। राओ रात्री तो तया प्रसिद्धा पृथ्वीका विकादिभवण द्वारायातविचित्र दुःखपरामर्श कृतभयापसारणया । धुरं चारित्रभारं । गुली-मपष्टम् | सत्यभावना में जो गुण हैं उनकी स्तुति आचार्य करते हैं अर्थ---- वह मुनि देवोंसे त्रस्त किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीडित किया गया तो भी सत्यभावनाको हृदयमें रखकर दुःखोंको सहन कर और निर्भय होकर संयमका संपूर्ण भार धारण करता है. भरण होगा इस विचारसे और भीमरूप दर्शनसे मनमें भीति उत्पन्न होने पर रत्नत्रयका यदि त्याग किया तो पुनः उसकी प्राप्ति होना अतिशय दुर्लभ है. रत्नत्रयकी प्राप्ति न होनेसे कर्मका नाश करना अशक्य है. कमका नाश न होनेसे वे आत्माको नाना प्रकारसे पीडा देते हैं. अतः भीति ही अनेक अनर्थोंका मूल है ऐसा निश्चय करके वह सत्यभावना से प्रथम दूर करनी चाहिये. खणणुतावणवाणवीयणविच्छेत्तणाबरोदत्तं ॥ चिंतिय दुहं अहं मुज्झदि णो सत्तभाविदो दुक्खे ॥ १९८ ॥ बालमरणाणि साहू सुचिंतिदूणप्पणी अनंताणि || मरणे समुह मुझइ णो सत्तभावणाणिरदो ॥ १९९ ॥ आश्वास ४१३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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