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________________ मूलाराषमा आश्वासः ११२ PARANARASTRAFATAFTAA सदिलो स्मृतिलोपं । रत्नत्रयपरिणामप्रबंधसंपादनोद्योगस्य स्मृतियों तथा विनाशं । काउंजे कहुँ । न चयति न शक्नुवंति । के ? परिस्सहा शुदायिवेवनाः । ताहे तक्ष । एतदुक्तमनया गायया अभ्यस्थमाने धुतज्ञानं निर्मल पटीयो भवति । पाटवाभ्यासबलेन च स्मृतिर खेदेन प्रवर्तते । स्मृतिमूलो हि योगो वाकायच्यापार इति । सुदं गदं । मूलारा-जदणाए यत्नेन प्रमादपरिहारेणलार्थः । जोग युज्यतेऽनेचानशनादिना निर्जरार्थ गतिरिति जोगो बाहां तपः । सदिलो स्मृतिलोपं । काउंजे कर्तुं । न शक्नुवन्ति । ताधे तदा मरणकाले ॥ अर्थ-अनशन अवमोदर्य इत्यादि तप मुनिराजके कर्मकी निर्जरा करते हैं अर्थात कर्मकी निर्जरा करनेके लिए मुनि अनशनादि तपसे जुड़ जाते हैं. इसलिए अनशनादि बाह्य तप को आचार्य योग कहते हैं. प्रमाद छोड कर प्रयत्नसे जो तपसे अपने आत्माको मुसंस्कृत बनाता है, जिसका मन जिनेश्वरके वचनोंमें एकाग्न हुआ है, ऐसा मुनि रत्नत्रय परिणामामें स्थिरता रखने में सतत उद्युक्त होता है अतः यदि क्षुदादि परीपहाँसे वह पीडित होगया तो भी उसकी स्मृतिका नाश होता नहीं हैं. अभिप्राय यह है कि, श्रुतत्रानका अभ्यास करनेसे वह निर्मल और ऊहापोहके सामर्थ्यसे युक्त हो जाता है. ऊहापोहकर अभ्यास बढ जानेसे जिनागममें स्मृति बिना खेदके प्रवृत्त होती है, वचनकी प्रवृत्ति, शरीरकी सब प्रवृत्तियां सपतिपर ही निर्भर रहती है. इस तरह ज्ञानके सामर्थ्य का वर्णन किया. R AM सत्यभावनाया गुणं स्ताति उत्तरगाथया-- देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो ब भीमरूवहिं ॥ तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिभओ सयलं ॥ १९६ ॥ बहुसो वि जुद्ध भाषणाए ण भडो हु मुज्झदि रणम्मि ॥ तह सत्त भावणाए ण मुज्झदि मुणी वि बोसग्गे ।। १९७ ।। भीष्यमाणोऽप्यहोरात्र भीमरूपैः सुरासुरैः॥ सत्यभाचनया साधु धुरि धारयतेऽखिलम् ।। १९८॥ ATARARIANTARA કર
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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