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________________ आश्वासः काराधना १३२३ दृष्टात्मनः परं हीनं भूखों मानं करोति ना॥ शुष्टात्मनोऽधिकं पाशो मा मुंघति सर्वथा ।। १४२९ ॥ विजयोत्या पण अप्पणादो आत्मनो हीनान सप्ट्या मूखो मामलि उदहन्ति । बुधाः पुनरात्मनोऽधि. कान्धिलोक्य मानं निरस्पम्ति। मूलारा--अश्पणादो आत्मनः सकाशान् । हीणे फुलादिभिरप्रकृष्टाम् । कलिं पापं । अधिए कुलादिभिरुकधान बुद्ध्यावलोक्य । ण यति न याति त्यजतीत्यर्थः ॥ - अर्थ-अपनेसे कुलादिकसे हीन लोकोंको देखकर कितनेक मूर्ख मनुष्य अभिमानयुक्त होकर पाप उपार्जन करते हैं. तथा अपनेसे भी कुलादिकसे बडे लोकोंको देखकर मानरहित होजाते हैं. माणी विस्सो सम्बस्स होदि कलहभयधेरदुक्खाणि ॥ पावदि माणी णियद इहपरलोए य अवमाणं ।। १३७७ ॥ द्वषं कलिं भयं वैरं यद वरंब यशःक्षतिम् ॥ पूजाभ्रंश पराभूति मानी लोकद्धये स्तुतः ॥ १४ ॥ विजयोदया-माणी विस्सो सम्बस्स मानी सर्वस्य द्वेच्यो भयत्ति । कलई, भयं, वैर, जन्मांतरानुमं दुःखं च प्रामनि । नियोगत इह पर चावमानं ॥ मूलारा-स्पष्टम् ।। अर्थ-मानी मनुष्यका सर लोक द्वेष करते हैं. वह कलह, वैर, भय, और अनेक जन्मोंमें दुःखोको प्राप्त होता है. नियमसे इहलोक और परलोकमें उसका अपमान भी होता है, १३२१ सव्वे वि कोहदोसा माणकसायरस होदि णादब्धा । माणेण चेव मेधुणहिंसालियचोजमाचरदि ।। १३७८ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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