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मूलाराधना
आधा
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PACATOR
समस्तव्यपर्यायममतासंगवर्जितः ॥ निःप्रेमस्नेहरागोस्ति सर्वत्र समदर्शनः ॥ १७२ ॥
इति उपधित्यागसूत्रम् ॥ विजयोदया-सव्यस्थ हत्यादिना-सर्वत्र देशे। पणिहिदप्या प्रणिहितात्मा प्रकर्पण निहितः निधिाः वस्तुमाथात्म्यशाने आत्मा येन स प्रतिनिहितात्मा । दब्बपञ्जयममत्तिसगविजडो द्रव्येषु जीवपुद्गलेप तत्पर्यापरूपेषु च ममतारूपो यः संगः परिग्रहस्तेन परिम्यक्तः । प्रणयः स्नेहा, प्रेम प्रीतिः, राग आसक्तिः क द्रव्यपर्यायपु जीवद्रव्ये पुत्रदारमित्रादी, नेपां नीरोगायधनयवादी पाये, आत्मनो वा देवन्ये, चक्रवर्तित्वेऽहमिदवे या, तथा शरीरे आहागादिक भोगसाधने, तदीयरूपरसगंधस्पर्शपर्यायेषु बा, पतेभ्यः परिणामेभ्यो निर्गतो णिप्पणयपेमराग इत्युच्यते । उबेग्ज प्रति पद्यत । समभावं समचिनतां द्रव्ये पर्याये या रामकोपावसरेण तत्स्वरूपग्रहणमात्रप्रवृत्तिीनता समरित्तता ॥ उचधी गदा ।।
परिग्रह परित्यागक्रमभुपदिशति--
मूल्यरा-सव्यत्य सर्वत्र देशे। दब्ब इत्यादिद्रव्येषु जीव मुद्गलेषु। तत्पीयेषु च यो ममतारूपः संगस्तेन विजडो परित्यक्तः । पणिहिदप्पा प्रण निहितो निक्षिप्तो वस्तुयाथात्म्यज्ञाने आत्मा येन । णिप्पणयपेमरागो निर्गतहप्रीत्यासतिः । प्रकृतत्वाजीवद्रव्ये पुत्रादौ तत्पर्याय नीरोगत्यधनित्वादौ । आत्मनो या देवत्वावो । तथा शरीरे आहारादिके भोगसाधने सनुपरसादी वा । उवेज प्रतिपद्यत ॥ उपधित्यागः सूत्रतः । ८ । अंकतः ९॥
अब परिग्रहका त्याग करनेका क्रम दिखाते हैं..
अर्थ-सर्व देशमें जिसने अपने आत्माको वस्तूका सत्यस्वरूप जाननेमें एकाग्र किया है. अर्थात् जो जीवादिपदार्थाको जानने में तत्पर हैं. जिसने जीव पुद्गलादिक द्रव्य और उनके देव मनुष्यादि पर्याय और स्पर्श रसादि पर्याय इनमें ममताका त्याग किया है. अर्थात् जीव पुद्गलादि द्रव्योंके पर्यायोंमें जिसने रागद्वेषरूप परिग्रहका त्याग किया है. स्नेह, प्रीति और आसक्ति इनको जिसने अपने हृदयसे निकाला है. अर्थात् जीवद्रव्य जो पुत्र, स्त्री, मित्र इनके नीरोगता, धनीपना इत्यादि में जिसको स्नेह नहीं है, पीति नहीं है और आसक्ति नहीं है ऐसा साधु सर्व द्रव्य और पर्यायोंमें समचित्त होता है अथवा स्वतःके देवपना, चक्रवर्तिपना और अहमिंद्रपना इत्यादि पर्यायोंमें भी वह प्रेम, स्नेह और आसक्तिका त्याग करता है. तथा शरीरमें, आहारादिक भोगसाधनके
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