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मूलाराधना
मच्छर, विच्छ, सर्प, कुत्ते वगैरह प्राणिको वह हस्तसे दूर करता नहीं है. पिच्छिकादि उपकरणसे अथवा दंडादिकॉस हटाता नहीं है, छत्र, पिच्छिका, चटाई, प्रावरण बगैरहसे वह अपने शरीरकी रक्षा नहीं करता है. शरीरको तुम पीडा मत करो इत्यादिवचन वह कहता नहीं है. अथवा मेरा रक्षण करो ऐसा वचन वह कहता नहीं है. यह शरीर आत्मासे भिन्न है, अचेतन है, यह चैतन्यसे अथवा सुखदुःखानुभवनसे अविशिष्ट है अर्थात् रहित है यह वाचा विवेक है,
यमतिसंस्तरविवक—जिस वसतिका पूर्व कालमें निवास किया था उसमें निवास न करना, पूर्व संस्तरमें-शय्यामें न सोना, अथवा न बैठना, मैं वसतिका और संस्तरका त्याग करूंगा ऐसा बोलना.
उपकरण विवेक शरीरके द्वारा उपकरणोंको ग्रहण न करना, उनको स्थापन न करना, और उनका रक्षण न करना, यह उपधिविवेक है, मैंने ज्ञानोपकरणादिक उपकरणोंका त्याग किया है ऐसा वचन बोलना. यह बाचा उपधिविवेक है.
भक्तपान विवक-आहार और पीनेके दाई क्षण नहीं करना भागीर द्वाग भत्तमान विषक है. इस तरहका आहार और पानी में ग्रहण न करूंगा, ऐसा वचन बोलना यह धाचा भक्तपानवियक है.
बैयावृत्यकर विवेक-वैयावृत्य करनेवाले जो अपने शिष्यादिक है उनका शरीरसे त्याग करना अर्थात् उनके साथ सहवास छोड देना. तुम मेरी वैयावृत्य मत करो. मैने तुह्मारा त्याग किया है ऐसा बचनके द्वारा बोलनाः
सर्व शरीरादिक पदार्थोपरसे प्रेमका त्याग करना अथवा य मेरे हैं ऐसा भाव छोड देना यह भावविवेक है.
परिग्रहपरित्यागक्रमं उपदिशति
सव्वत्थ दवपञ्जयममतिसंगविजडो पणिहिदप्पा ॥ णिप्पणयपेमरागो उवेज सम्वत्थ समभावं ॥ १७ ॥