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आश्वातः
मूलाराधना
किं ग्रहवतस्य कुर्वन्ति स्नानादिपरित्यागाः येन तद्वताचरणप्रियस्तदनुष्ठाने यतते इत्यारकायामाह
जल्लविलित्तो देहो लुक्खो लोयकदवियडबीभत्थो ॥ जो रूढणक्खलोमो सा गुत्ती बंभचेरस्स ।। ९५ ॥
या रूक्षा लोचनीमत्सा सागणिमला तनुः ।। . सारमा महाचर्यस्य प्ररूढनखलोमिका ॥ ९६।
इति व्युत्सृष्टदेहता ।। _ विजयोदया-जलयिरित्तो देहति । देवो गुप्तीभचेरमसति पद घटना । देशः शरीर । गुत्ती मुनिः रक्षा। कीर? अलविलित्तो घनीभूतमपर्युपरिचितं शरीरभलं जलशब्दनोच्यते । तेन विलित्तो विलिप्तः देहः । स्नानादिन्या. गात् । कयो रुक्षस्पर्शः स्नानादिचिरकादेव लोनाकदधिगदाधीभन्यो कोचकर णचिकृत भन्सः। जो यो y: २२ पदक:लोगो दीवानूनमस्तपाद्यशलोमान्वितः । सेति शुतिः || सामानाधिकार प्रयान मागिन्यात् । न मियरस ब्रह्मचर्यस्य ॥
स्नानादित्यारस्य फलमा:
मूलारा-जालु पनीभूननुपर्नुपरिचित शरमन जलयुग्यने । सर्वामीणमली का जहः । जयहमीभक्छो लोचकडं लोचकृत लोदकरण तेन विथडा लिहतो वैरूप्यं नीतोऽत एव वीभत्सो जुगासाविश्यः । रुकनलोमो दीभूतनखप्रच्छायदेशादिलोनकः । गुती गुप्तिः रक्षा। आता रूढवैराग्यकरत्वात् ।
ब्रह्मवतधारक मुनि स्नानादिकोंका त्याग करते हैं. यह मत्य है. परन्तु स्नानादिकाका त्याग करनेन ब्रह्मव्रतमें क्या विशेषता होती है ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देत हैं-..
अर्थ-स्नानादिकोंका त्याग करनेसे यतके देहपर चार बार मल जम कर दृढ होता है. अथात इस तरहसे मल संचित होनेपर उनके ब्रह्मचर्यका रक्षण होता है. स्नानत्यागसे और मलसंजय हानसे दहकी स्निग्धकांति नष्ट होकर वह रूखी बनती हैं. लोच करनेसे देह बीभत्स दीखता है. नखसंस्कार न करनेम नख बद कर लंब होते हैं और गुप्तमदेश कशासे ढक जाता है. अतः स्नानादिकार्य न करनेसे ब्रह्मचर्यका रक्षण होता है. यह सिद्ध होता है. 'ब्युत्सृष्ट शरीर। यह प्रकरण समाप्त हुआ.
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