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दुलाराधना ३९८
विजयोदया---कंदप कुआइयन्चलसीलो रागोद्रेकात्मास सम्मिश्रो ऽशिष्टयाप्रयोगः कंदर्पः । रागातिशयतो हसतः परमुद्दिश्याशिएकायप्रयोगः करं । एवं भवतो मातरं करोमीति कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलसील: शिवहासको य सदा हास्यकथाकथनोद्यतः । विभावितो य परं परं विसापयन् कुतुकं किंचिदुपये। कंदष्पं भावणं कुणदि दान करोति । रागोद्रेकजनितहासमयर्तितो वाग्योगः काययोगः परविस्मयकारी वा कंदर्पभावनेत्युच्यते । असकृत्प्रवर्तमानः ।
तंत्र कांद निर्दिशति -
मूलारा - कंदपक कुआयसील कंदकुत्कुवातिद्वयशीलः । रागोद्रेकात्प्रहास मिश्रोऽशिष्टवाक प्रयोगः केन्द्रः | रागातिशयवतो इसन: परमुद्दिश्यैवं तब मातरं करोमि इति अशिष्ट कार्यं प्रकुत्कुचायितं । कौत्कुच्यमिति यावत अव्यक्तकंठस्वर करण मवशिध्दांगावयवचालन वेति केचित् । तद्वयं शीलयति पुनः पुनः प्रवर्तयति । णिचहासणको सदा हास्यकथाकथनोद्यतः | विभाति मंत्रद्रालादिकुहकप्रदर्शनेन विस्मयं नयन ।
कंदर्प भावनानिरूपण
अर्थ- प्रीति की उत्कटता से हास्यसहित असभ्य चचन बोलना, भेदवचन बोलना वह कंदर्पवचन है. रागकी अधिकता से अतिशयरागवश होकर इसकर दुसरोंको उद्देश कर शरीरके असम्य अभिनयके साथ असभ्य वचनोच्चार करना यह कौत्कुच्य है. जैसे तेरी माताके साथ में बुरा कार्य करूंगा ऐसा वचन बोलना. इन दो प्रकारके वचनका जो वारंवार प्रयोग करते हैं वे चलशील समझना चाहिए जो मंत्र, इंद्रजालादि कौतुक दिखाकर लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करते हैं. जो हमेशा हास्य उत्पन्न हो ऐसी कथायें कहनेंम उयुक्त रहते हैं. वे मुनि कदर्पभावना करते हैं ऐसा समझना चाहिए.
किल्विषभावनाख्यानायाचऐ
णारस केलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं ॥
माझ्य अवण्णवादी खिम्भिसियं भावणं कुणइ ॥ १८१ ॥ सर्वज्ञशासनज्ञानधर्माचार्य तपस्विनाम् ॥
निंदापरायणो मायी केल्बिर्षी श्रयतेऽवमः ॥ १८३ ।।
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