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________________ मृराराधना आश्वामः कार्य कारणोपचायत । तेन कंदर्पभावना, किल्बिषभावना, अभियोग्यभावना, असुरभावना मम्मोहमाक्ना चति प्रामं । । अन्ये तु तद्धितादिमुखेन व्युत्पाद्य ताः पठन्ति चथा - कांदणे कैल्बिषी चैव भावना चाभियोगजा । दानवी नाभिसमोहा त्याज्या पंचतयी च सा ।। इत्थं पा-कांदी कैल्बिषी प्रावैराभियोग्यासुरी तथा । सांमोही पंचमी हेया संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ संक्लेशको उत्पन्न करनेवाली भावनाओं के विकल्प कहते है-- अर्थ-जगतमें परिग्रहही रागद्वेषादिकाको उत्पन्न करते है इस लिये परिग्रहोंका न्यागकर निःस्पृह होकर | रागडेपोंको जीतना चाहिये. गतिकर्मके नरगति, तिर्यचगति देवगति और मनुष्यमति ऐसे चार भेद है. देवगतिके असुरदेवगति, नागदेव गति वगैरह अनेक प्रकार है. कंदपदेवगति, किल्विषदेवगति, अभियोगदेवगति, असुरदचगति और सम्मेह देवमति इनके प्रति कारणरूप जो संक्लेश परिणाम उनको भी कंदर्पभावना किल्बिषभावना ऐसे नाम हैं. अन्न कारण है और प्राण कार्य है इसलिए प्राणके कारण भूत अन्नमें कार्योपचारसे प्राण व्यवहार होता है बसे कि ल्बिपादि देवगतिकी प्राप्ति कर देने में जो संक्लेश परिणाम है, उनमें भी कार्योपचार करक कंदपभावना, किल्बिषभावना इत्यादि नामोंका व्यवहार सज्जन करते है, तत्र कंदर्पभावनानिरूपणायोसरगाथा कंदप्पकुक्कुआइय चलसीला णिचहासणकहो य ॥ विन्भावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ १८० ।। हास्यकांदपकौत्कुकयपरविस्मयकोविदः ।। कांदी भावनां दीनो भजते लोलमानसः ॥ १८२ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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