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________________ मूलाराधना आश्चात संघके मध्यमें उसको बिठाकर स्वयं संघके बाहर खड़े होकर यह एलाचार्य निरतिचाररत्नत्रय पालते हैं. निजका और तुम्हारा भी संसारसमुद्रसे उद्धार करने में समर्थ हैं. ये अब तुम्हारे आचार्य गुरु है ऐसी मेरी सम्मति है. इस लिये इनकी आज्ञाके अनुसार ही आपकी प्रवृत्ति होनी चाहिये इतना बोलकर चतुर्विध संघका भार एलाचार्थके मस्तकपर अर्पण करना चाहिये. तदनंतर दुसरोंके ऊपर उपकार करनेका आयास छोडना चाहिये और शुभपरिणामोसे अपने आत्माको संस्कृत करना चाहिये. SANSARASATARAPATERALA REASTER কতগ্রামৰিকাৰিবায়ানা जावंतु केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं ॥ ते वज्जितो जिणदि हु राग दोसं च णिस्संगो ॥ १७८ ।। कंदप्पदेवखिब्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा ॥ एदा हु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा ॥ १७९ ॥ कांदी कैल्बिषी प्राज्ञैराभियोग्यासुरी सदा॥ साम्मोही पंचमी हेया संक्लिष्टा भाषना ध्रुवम् ॥ १८१ ॥ विजयोदया-कंदप्प इत्यादिना गतिकर्म चतुर्विध नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्य गतिदेवगतिरित्यत्र देवगतिनैकप्रकारा असुरदेवगतिनागदेवगत्यादिप्रपंचेन । कंदर्यदेवगतः, किल्मिषदेवगतेराभियोग्यदेवगतः, असुरदेवगतेः, सम्मोहदेवगतेश्च कारणभूताः आत्मपरिणामाः । कारणेन कार्योपचारोऽन्नमाणवत् । यथानं धै प्राणाः इति । माणकारणे प्राणोपचारः । कार्यगतेन व्यपदेशेन कंदपशब्देनोच्यते कंदर्पभावना । किल्बिषभावना, भभियोग्यभावना, भसुरभावना, सम्मोहभावमाति पंचप्रकारा भावना निरूपिताः सर्वविद्रिा अत्रेयं गाया मूले श्रूयते । मुलारा-पता टीकाकारो मेच्छति। त्यक्तव्यसंक्लेशभावनाचिकल्पानुदेष्टुमाइ- ' मूलारा--कंदप्पेत्यादि । अत्र कंदीदिवेवगतीनां कारण भूसा आत्मपरिणामविशेषाः कदादिशब्दैनिविदाः ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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