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मूलाराधना
बापासा
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विजयोदया-चोइसदसणवपुठवी चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी चा । महामदी महामतिः । सायरोव्य गंभीरो सागर स्य गंभीर । भाधारणं णाम कप्पवषहारधारी चा कल्पव्यवहारशो चा आधारवान शानी । दुष्परिणामा पते मनोचाकायविफल्पाः, शुभा वा पुण्यात्रधभूताः। शुद्धा या शुभाशुभकर्मसंवरहेतचः, इति बोधयति । गुमशुद्धषु वा प्रवर्तयति श्रुतममारतमुपविशातोऽसौ दर्शनस्य, चारिप्रस्थ, ते सथ धाधारयत्वात् । शानमाघार स्तहानाधारवान् अवानाधारवान् ।
आधारवत्वमष्टादशभिर्गाथाभियाचिरव्यामुरादावाधारवन्नं लक्षयति--
मलारा-नारधारी ... आधारितामाखनुनत:योगः । आधारवं दर्शनहानचारित्रतपसामुत्पत्तिस्थितिवृद्धिरक्षाधिष्ठानत्वाधारोऽत्र ज्ञानं तद्वान मरिराधारपान । नित्यश्रुतोपदेशेन पापास्रवणकारणाशुभपरिणामेभ्यो व्यावर्त्य क्षपकस्य पुण्यास्रबे, शुभयोगत्रये, संघरनिर्जराकारणे वा शुद्धोपयोगे प्रवर्तक इत्यर्थः । . .
आधारवत्व गुणका सविस्तर वर्णन --
अर्थ --जो चौदापूर्व, दसपूर्व अथवा नउ पूर्वोका जाता है, जिसमें समुद्रतुल्य गंभीरता गुण है. जो कल्प । म्यवहारका ज्ञाता है अर्थात् जो प्रायश्चिन शास्त्रका ज्ञाता है और उसमें बताये हुए प्रयोगोंका जिसने अनुसरण किया है, अर्थात् अपराधी मुनिओंको जिसने अनेकवार प्रायश्चिन देकर इस विपयमें विशेष ज्ञान प्राप्त कर लिया है एमे आचार्य आधारवत्व गुणके धारक माने जाते हैं. इस गुणके धारक आचार्य मनोवचन और शरीरके अशुभ परिणाम पापात्रबके कारण होते हैं, शुभ परिणामों से पुण्यकर्म आत्मामें उत्पन्न होता है और शुद्ध परिणामोसे शुभाशुभ कर्मोका संवर होता है ऐसा उपदेया कर शियोको शुभ और शुद्ध परिणामोंमें प्रवृत्त करते हैं. हमेशा श्रुनका उपदेश करते हैं. इनका ज्ञान दर्शन, चारित्र और तपको आधार होता है. इसलिए ये आधारवत्व गुणके धारक माने जाते है.
RATA
यस्तु मानवान भवति तदाश्रयणे पोषाध्याय
णासेज आगीदत्यो चउरंगं तस्स लोगसारंगं ॥ गठम्मि य चउरंगे | उ सुलहं होइ चउरंग ॥ ४२९ ।।