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________________ मूलाराधना दि कार्य करने में लोगोंको प्रवृत्त करेगा. क्षपकके लिए भी ऐसा ही महारम्भका कार्य करेगा. इसलिए ऐसे आचार्य के सहवाससे क्षषकका हित होना शक्य नहीं है. आश्वासा ६३८ A आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे त्रि ते विवज्जेदि ॥ तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ ॥ ४२७ ।। आपारम्पः पुनर्वाषान्यतः सर्वाधिमंचति ।। निर्यापकस्ततः सूरिराचारस्थोऽभिधीयते ॥ ४४० । इति आचारी बिजयाश्या-आयारत्था पुण आचारस्थः पुनः सूरि तान्सन्विर्जयति दोषान् । तया तस्मात् । गुणेषु प्रयत. मानो दोषेभ्यो व्यावृत्तश्च । आयारस्थो भायरिओ णिज्जवओहोवि आचारस्थ एवाचार्या निर्याएको भवति नायरः। व्याण्यातमाचारपत्वम् । आयारयं। निर्यापकत्वे सूरिमाचारवन्त नियमयविमूलारा स्पष्टम् ।। अर्थ-आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषोंका त्याग करते हैं, इसलिए गुणोंमें प्रवृत्त होनेवाले दोषोंसे रहित ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानना चाहिए. जो आचार्य आचारोमें प्रवृत्त हैं वे हि निर्यापक समझना चाहिए. आचारवत्व गुणका वर्णन समाप्त हुआ. - - - - IENTITLE आधारवत्यव्याख्यानायोत्तरप्रयंधः चोद सदसणवपुत्री महामदी सायरोव्व गंभीरो ॥ कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम ॥ ४२८ ॥ धीरोग्विलांगपूर्वज्ञो यः कालव्यवहारवित ।। आधारी स महामज्ञो गंभीरो मंदरस्थिरः ।। ४४१ ।। कटदा - - -
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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