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मूलाराधना
माथा
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चतुरंगमगीताों नाशयेल्लोकपूजितम् ।।
संमृती लप्स्यते भूयो नाशितं तच दुखतः ॥ ४४२॥ विजयोदया-णासज्ज अगीदत्यो नाशेयवगृहीतसूत्रार्थः । तस्स तस्य अपकला। चउरंग पत्यारि शानदर्श नचारित्रतपांसि अंगानि यस्य मोक्षमार्गस्य तं चतुरंग । लोके यासारं निर्वाणं तस्या उपकारक चतुरंग माम यदि नए तथापि तच्चतुरंग पुनर्लभ्यते इति शंकामिमां निरस्यति । मम्मि यचउरंगे नष्टे इह जन्मनि चतुरंगे मुक्तिमार्गे । म उ सुलह होदि चरंगं । नैव सुखेन लभ्यते तच्चतुरंग । विनाशितचतुरंगो मिथ्यात्वपरिणतः कुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतुरंग इत्यभिप्रायः
अन्नाश्रयणे शोषमाह
भूलारा-चउरंग चवारि दर्शनवनवास्त्रिापास्यमानि यस्य मोक्षमार्गस्य न । लोकमारंग लोके यत्सारं व्यवहारेणेंद्रादिपदं निश्चयेन निर्वाणं तस्यांग साधनं । यदि नाम न चतुरंग तथापि पुनर्लभ्यते इत्यवाह-नो इत्यादि विनाशितचतुरंगो मिथ्यात्वपरिणतः फुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतरंगमित्यभिणयः ॥
जो आचार्य ज्ञानी नहीं है उनके आश्रयसे दोपोत्पत्ति होती है. इस विषयका विवेचन
अर्थ-जिसको सिद्धांतसूत्रोंका ज्ञान नहीं है वह आचार्य धपकके चतुरंगका नाश करता है. अर्थात् यदि क्षपकने अज्ञ आचार्य का समाधिमरण के लिये आश्रय किया तो उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्लान, चारित्र और तपका नाश होता है. यह चतुरंग मोक्षमार्ग का हेतु है. यह चतुरंग व्यवहारनयसे सारभूत अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे इंद्रादि पदका कारण है. तथा निश्चयनयसे लोकत्रयमें श्रेष्ठ ऐसे मोक्षका कारण है. यह नष्ट होने पर पुनः प्राप्त होगा ऐसी शंका करना व्यर्थ है. क्योंकि जब यह नष्ट हो जावेगा तो वह मोक्षपद कैसे मिलेगा अर्थात् सम्यग्दर्शनादिकोका नाश होनेपर इस आत्माको मिथ्यात्व अनेक कृयोनिओंमें दीर्घ कालतक घुमाता है. अतः इस चतुरंगकी पुनः प्राप्ति होना अतिशय कठिण है.
क्षपकस्य चतुरंग कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसी नाशयतीति दर्शयति
संसारसायरम्मि य अगंतबहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि ।। संसरमाणो दुक्खेण लहदि जीवो मणुस्सत्तं ॥ ४३० ।।