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________________ आश्वासः इलाराधना आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दादब्यो । सेज्जा संथारो वि य जइ वि असंभोइओ होइ ।। ४१३ ॥ देयः संघाटकोऽवश्यमागताय दिनत्रयम् ॥ असंस्तुतस्य यत्नेन शय्यासंस्तरकावपि ॥ ४२४ ॥ विजयोदया--भाएसस्स तिरतं माधुर्णकस्य त्रिरात्रं । णियमा संघाडओ तु वादव्यो निश्चयेन संघाटको दातस्य एव । सेजा संधारो वि य यसतिः संस्तरच दातव्यः । जदि वि असंभोइओ होइ । यद्यप्यपरीक्षितत्वात्सहानाच रणीयो भवति । तथापि संघाटको यातच्यो भवति । युक्ताबारश्चेत्संगृह्यते ॥ आगंतुकेन च प्रश्रयमुपाश्रित्य भगवन्संघाटकदानेनानुमाहोऽस्मीति विज्ञापितो गुरुस्तस्मै सामाचार# संघाटक दद्यात् इति झापयति मूलारा-दु दादवो दातव्य एष तुरेवार्थोन मिन्नक्रमः । असंभोइओ असंभोगिकः सामाचारिक इत्यर्थः युक्ताचारवेत्संगाध इति भावः ।। आगंतुक यति गुरूका आश्रयकर हे भगवन् ! सहाय देकर आप मेरे ऊपर अनुग्रह करो ऐसी विज्ञसि करता है तब आचारक्रमफे ज्ञावा उसको संघाटक अर्थात् सहायमदन करते हैं यही माव आगेके गाथामें आचार्य कहते है अर्थ--अतिथिरूप मुनिको नियमसे तीन दिन तक सहायप्रदान करना चाहिये, उसको वसतिका और संस्तर अर्थात् चटाई देना चाहिये. यद्यपि परीक्षा होनेतक उसके साथ आचारण करना योग्य नहीं है तथापि उसको सहाय देना चाहिए, और यदि उसका आचारण योग्य दीख पड़ा तो गणमें उसका संग्रह करना चाहिए. विनत्रयोत्तरकालं किं कार्य गुरुणेत्याशंकायर्या वदति तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाडओ दु दादब्यो । सेज्जा संथारो वि य गणिणा अविजुत्तजोगिस्स ॥ ४१४ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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