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________________ लोगभना १२५१ तृष्णाको ये बढायेंगे. इसलिए तू इस भोगेच्छाको शिथिल कर ऐसा निर्यापकाचार्य क्षपकको उपदेश करते हैंअर्थ- जैसे जैसे मनुष्य भोगका भोगते हैं वैसी २ उनकी भोगतृष्णा बढ़ती है. जैसे लकडीओसे अग्नि बढ़ता है वैसे भोगोंसे तृष्णा रहती हैं. श्री सनभद्र आचार्य तृष्णा और भोगके विषयमें ऐसा कहते हैं. ये तुष्णाग्नि की ज्वालायें प्राणिको जलाती हैं परंतु उनकी इंद्रियोंके इष्ट पदाथोंसे शांति नहीं होती है उलटी तृष्णाज्वालाकी वृद्धि ही होती हैं. जीवस्स पत्थि तित्ती चिरं पि भोएहिं भुंजमाणेहिं ॥ तित्तीए विणा चित्तं उब्बूरं उब्बुदं होइ ॥ १२६३ ॥ भुज्यमानैश्चरं भोगैस्तृप्तिर्नास्ति शरीरिणाम् ॥ उत्पूरमुद्धतं चित्रं बिना तृप्त्या जायते ॥। १३०७ ।। विजयोदया - जीवरस जीवस्य । नास्ति तृप्तिचिरकालमाप भोगान भवतः । पश्यामत्रयं काल भोगभूमिषु । शित्सागरोपमकाल अपरेषु तृप्त्या च विना वित्तं । उब्यूरं उत् उत्पूरं उधृतं भवतीति सूत्रार्थः ॥ सुविरमपि सेस्टर्न भवति सिस्य सुतरामोत्सुक्यं भवतीति भोगापराधमुपदिशति - मूलारा — उब्बूर उत्पूरं, अत्यर्थमित्यर्थः । उदुवं उध्दुतं उत्कंठितमित्यर्थः ॥ अर्थ – चिरकालपर्यंत भोगोंका अनुभव लेनेपर भी जीवको तृप्ति होती ही नहीं, भोगभूमी में इस जीवने तीन पल्योपमकालतक भोगोंका अनुभव किया है. अमरलोकमें तेहतीस सागरोपम कालतक देवभो गोका सुख भोगा है तो भी तृप्तीके बिना इस जीवका चित्त हमेशा उत्कंठित रहता है जह इंधणेहिं अग्गी जह व समुद्दो नदीसहस्सेहिं ॥ तह जीवा ण हु सक्का तिप्पेडुं कामभोगेहिं ॥ १२६४ ॥ नदीजतैरिषां भोधिर्विभावसुरियेधनैः ॥ त्र्यमानैरयं भोगैर्न जीवो जातु तृप्यति ।। १३०८ । आश्व १२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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