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________________ Kolestion मुबाराधना মাঘীন ७९५ | विजयोदया--अरहयडीसरिसी अरगर्त घटीसरशी पूर्णान्य गृणा । पबमपराधमधनं स्वमुमेन प्रवृत्तमय अप्रवृत्तमेव गुरुणा अश्रुतत्वात् । अहवा चुदच्छुदोषमा होइ अथवा मेथनमपालिका दव, सा यथा मुतापि बनानि एवमियं याहमुखकुदरमुक्तापि मायाशल्यसदितेति मध्नाति । भिन्न वडासचिनला या भिन्नघटसरशी या यथा भित्रको घटो घटकार्य जलधारण जलाद्यानयन वा कर्तुमसमर्थ पवमियमालोचना न नि संपादयनीति साधर्म्य ॥ सदाउलयं ॥ शब्दाकुलदोपदुष्टालोचनावयय इप्टांतन समर्थयते मूलारा- अरह घड़ीसको यथा अरगर्तधरिकाः पुर्या अपूना वापराधकथन म्बनबन यानम यकनमेय गुरुणाऽश्रुतत्यान् । चुदच्छुदोबमा मंथनचर्मपालिकातुल्या । सा पयागुताधि धनानि । एमियं दोबाटोचना मुख कुहरभुता५ भाषायुक्तति नाति । जिनयहवार सुपिर दसद्दशी । यथा भिमो घटो जलधारणादिकार्य कर्तुं न शक्नोति तथेयं निर्जरामिति साधर्म्यम् || अर्थ-जैसे अग्गर्त घटीयंत्रमें लगे हुए घरे जलसे भरे हुए भी अपूर्ण हो जाते हैं अर्थात वे हमेशा जलसे भरते हैं और पुनः रिक्त होते हैं वैसे अपराधोंका अपने मुखसे कथन किया तो भी कथन नहीं किये सरिखा हो जाता है. क्योंकि बहुतोंके शब्दोंमें उसके शन्द गुरु सुन नहीं सकते हैं. अथवा काष्ठको छिद्र पाडनेवाला वर्मा नामक शख धुमाते समय दोरीसे मुक्त होकर भी बंधा रहता है. एक. पाश्चसे उसकी दोरी दिली हो जाती है परंतु दुसरी बाजु उसकी उसी समय दोरीस दृढ बंधी जाती है. वैसे यह महसे अपरार्धाका वणन बाहर पडता है. तो भी अंतरंग माया शल्यसे सहित होनेसे कमपंच काही कारण होता है. अथवा यह आलोचना फूट पडक समान है. फूटा घडा जल लाने में और जल धारण करने में असमर्थ है. वैमी यह आलोचना कर्मनिर्जरा करनेमें असमर्थ होती है. आयरियपादमूले हु उवगदो बंदिऊण तिविण ॥ कोई आलोचेज्ज हु सव्वे दोसे जहावने ॥ ५९३ ।। भरिभरिकभरानभ्रः सूरिपादावजदाराम ।। प्रणम्य मापने कनिहापं सर्व विधानतः ।। ६१८ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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