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________________ आश्वा . .. विजयोदया -आयरियामले उनमयो अाचार्या मूलमुपगतः । लिविधेग विदुण मनोवाहायशुद्धया वंमृलमानानां हया। कोई करि-यम् । मालाएक कथा । सच दोस जहावरी सर्वान्दोषास्थलान्सूक्ष्मांश्च यथावृत्तान्मनो बानाधक्रियारूपान ऊनकारितानुमनदान । बहुजनमित्यष्टममालोचनादापनामा पराया याचष्टमुलाग-जधावत यासान् । मेन भगोत्राक्कायकृतकारितानुमतान्यतभेन प्रकारेण प्रवृत्तान् ।। अर्थ- कोइ मुनि आचार्यक मनिष जाकर उनके चरणोंको मन, वचन और शरीर इनको शुद्धकर नमस्कार करता है. तदनंतर मन, वचन, शगामे कृत, कारित और अनुमोदन के साथ स्थल अथवा सूक्ष्म जो जो दोष हुये थे उनका संपूर्ण कथन करना है. .. तो दसणचरणाधारएहि सुत्तत्थमुव्वहंतहि ॥ पत्रयणकुमलहि जहारिहं तवो तेहिं से दिण्णो ॥ ५९४ ॥ तस्य सूत्रार्थदक्षेण रत्नश्रितपशालिना ।। व्यवहारविदा द प्रायश्चित्तं यथोचितम् ।। १५ ॥ विजयोदया-तो पदचात् आलोचनोत्तरकालं । दसणचरणाधारणहिं समीचीनदर्शनचारित्रधारणोद्यौः । सुत्तत्थमुव्बहनहि मूत्रार्थमुदहद्भिः । पचयणकुसलाह सूत्रार्थमुहद्भिरित्यनेनेव गतत्वारिकमानेन 'प्रवनयकुशलः ' इति । अयमभिप्रायः-प्रायश्चित्त ग्रंथ युतिः प्रवचनशब्दः नेग प्रायाचिकुशलैरित्यर्थः । अन्यशारमशो न ददाति न चेत्यायश्चिसशति प्राचन्यकथना पृथगुणाभ । केटि नैः । तस्मै । जवाविद नयी दिनों अपराधानुरूपनपो दस । तपोग्रहा प्रायाचित्तोपत क्षणार्शनेन प्रायदिवस दर्स इत्यर्थः ।। गलाग . आलोचनोनरमा | पवन यहिं प्राविसमतुः । अन्यशास्त्रज्ञोऽपि प्रायमिजाजानोग मान्य कचनार्थ अन्य पृनुदान दो पाया । जधानि अगावानुस। नहि तः मिर्मचाई। 6. तसी। अर्थ-जब मुनि आलोचना समाप्त करता है तब सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके धारक, सूबाथको अपने हृदय में धारण करनेवाले, और प्रवचन में कुशल एम आचार्य आलोचना करनेवाले को यथायोग्य पायचित्त - =
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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