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मृलागना
आधामा
देते हैं. शंका मूत्रार्थके धारक इस शब्दका अर्थ प्रवचनमें निपुण ऐसा होता है तो पबयणकुसलो यह शब्द गाथामें व्यर्थ है.
उत्तर- यहां प्रवचन शब्दस प्रायश्चित ग्रंथ यह अर्थ आचार्य को अभिमत है. सूत्रशब्दसे प्रायश्चित्त शास्र के निगमशागामझना मानिय. अन्य शास्त्रों का ज्ञाता होकर यदि प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता न हो तो वह प्रायश्चिन नहीं दे सकता यह अभिप्राय यहां मुख्य है. उसकी सिद्धी के लिये यहां पतयणकुसलो' यह पद आचार्य महाराजन गाथाम जोड़ दिया है.
णवमम्मि य जं पुव्वे भणिदं कप्पे तहेब ववहारो ।। अंगेसु सेसएसु य पइण्णए चावि तं दिणं ॥ ५९५ ॥ तोर्स असहहतो आइरियाणं पुणो वि अण्णाणं ॥ जइ पुग्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अठ्ठमओ ॥ ५९६ ॥ पकल्पदयवहारांगपूर्वादिश्रुतभाषितम् ।। तदालोच्य विधानेन दत्तं सूत्रपटीयसा।। ६२० ॥ अश्रद्राय वचम्नम्प स यथा पृच्छते परं
आचार्यः कधिनी दोपस्तदालोचनगोचरः।। ६२ ।। विजयोदया--तास न । आधरियाणं आचार्याणां वचनं । असइडतो अश्रदधानः । पुणो घि जदि पुनरपि यदि प्रदत्यन्धानसी । अमगो पारलोयणादोसो सोऽएम: आलोचनादोषः।
अत्रेयं गाचा सूत्रेऽनुभूयत । मूलारा-एतां श्रीविजयो नेच्छति । मूलारा- स्पष्टम ।
अर्थ-नौवा पूर्व प्रत्यारूपान नामका है उसमें प्रायश्चित्तका निरूपण है. अंगबाधश्रुतमें कल्पनामक प्रकरण में प्रायश्चित्तका विचार किया है. वाकीके अंगों और प्रकीर्णकोंमें जो प्रायश्चित्त का निरूपण है उसके अनुसार आचार्य प्रायश्चित्त दते है.