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मृगाराधना
आवास
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परंतु उनके दिये हाए प्रायश्चित्तमें अश्रद्धान करके यह आलोचव. मुनि यदि अन्योंको पूछेगा 'अथान आचार्य महाराजने दिया हआ गयरिनन योग्य है या अयोग्य है हेगा पडेगा तो यह आलोचनाका वजन गुच्छा नामक आठवा दोष होगा.
पगुणो वणो ससल्लं जध पच्छा आदुरं ण तावेदि ।। बहुवेदणाहिं बहुसो तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ।। ५९७ ॥ दोषावतीर्णोऽपि ददाति पीडां परम कारण विशाध्यमानः ।। व्रणी हि शुष्कोऽपि करोति बाचा प्रचाल्यमानः किमुताविपहाः ॥६२ ।।
इति भूरिमूरिदोषः । विजयोदया-पगुणो वणो प्रगुण वर्ण । उपचिर्त । समलं शल्पसहितं । पच्छा पश्चान । मादुर व्याधिन । किमु न तानि । किमु न तापयति ताश्यस्येय । बहुवेदणाहिं बडीभिगाभिः । यदुनो बदशः तधिमा तथा संसास्त. रणसोधी आलोचनाशुद्धिः । मायामृगपरित्यागन कृता अतिशोभना सत्ता गुरुदत्तप्रायश्चित्तापि यदानशनपसन्धित त्यामवाहा । बहुजण ॥
बहुजनदोषदुष्टालोचनाया दुःखावहत्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयति
मूलारा-पउणो तपरि रूढः। ससलो अंत:कंडादियुक्तः । ण तावेदि न कदार्थ यति । बहुसो बहुवारान । तधिमा तथेयं मायामपापरित्यागेन कृतेति संहतदोषापि गुरुदासप्रायश्विताश्रद्धानशल्यानुविद्वत्वेन दुःखावहत्वात् ॥
अर्थ-जिसमें कांटा रहा है ऐमा प्रणा बढ़ जाता है तब वह अनेक प्रकारकी चेदनायें उत्पन्न कर जीवको जैसा बहुत दुख देता है, वैसी यह आलोचना भी जीवको बहुत दुःखदायक है. यह आलोचना माया और असत्य भाषणसे रहित है, इसलिये यद्यपि अतिशय अच्छी मानी जाती है नथापि गुरुश्रोने दिय प्रायश्चिन पर थदान न होनेसे दुःखदायक है. इस प्रकार बडुजन नामक दोपका वर्णन हुभा.
आगमदो जो बालो परियाएण व हवेज जो बालो ।। तस्स सगं दुचरियं आलोचेदूण बालमदी ॥ ५९८ ।।
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