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भाव
मनाराधना
अनुमोदनसे किये हुए अपराधोंकी मन आलोचना की है ऐसे जो समझता है उसकी यह आलोचना करना नौ दोषसे दुष्ट है. जानवालको और चारित्रवालको अपने अपराध कहना यह नौवा अव्यक्त नामक दोष है,
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ऋडहिरणं जह णिच्छएण दुज्जणकदा जहा मत्ती॥ पच्छा होदि अपत्थं तधिमा सल्लद्धरणसोधी ।। ६०० ।। इदमालोचनं दत्ते पश्चात्तापं दुरुत्तरं ।। दुष्टानामिव सांगत्यं कूटं स्वर्णमिवाधवा ।। १२५ ।।
दति अन्यक्तदोषः । बिजोवा - अच्चन । कागं जा पच्दका अपत्या पिच्छाण होदिनि पाटना । यथा कृटहिरण्य धनमिति गटी पहचादपथ्यं निश्चयनो अचान अभिमनपग्रहाण अनुपावत्यात् । पचमपि इयमपि चालम्य क्रियमाणालोनना अनुपप्रायश्विजमाती अनुपापरवात मदमी । सानदालः परार्थयोग्यप्रायदिन तं दातुं न शमः । दुज्जणकदा य
सजा को अपना कार्यः । दुजन कृता मैत्री स्थान पथ्य, दुःखं प्राच्छनीति पचं चारित्रयालस्य संयमोमययिक लाम्य तापि मागदिचनालाममूला अनेकानर्धापति भावः ॥
मलारा-- कूडहिरण कूटकं सुवर्ण । पछा पश्चात् । उत्तरकाले। अपच्छं खकारणं । यथा कूटहिरण्य धनमिति गृहीतं पश्चादपरभ्यं निश्चयतो भवति । अभिमतदव्यग्रहणे अनुपायत्यात । एषमियमपि बालगुरोरये क्रियमाणा लोचना अनुरूपप्रायश्चित्तमानावनुपायत्वादपध्या | न हि ज्ञानबालः परस्मै योग्य प्रायश्चित्तं दातुं क्षमते। यथा कार्यदुर्जने कृता मैत्री पश्चाग्मित चयतोऽपन्यं भवल्वेवं धारिश्रयालगुरोरमे कृताऽलोचना प्रायश्विनालाभमूलानेकानर्यावहेति भावः ।।
अर्थ-जैसे कृत्रिम मुवर्ण धन समझकर ग्रहण किया परंतु कार्यकाल में उसका उपयोग नहीं होता है. अर्थात् बाजार में इच्छित वस्तु लेनेके लिए उसको बेचनेका विचार किया तो कोइ भी उसको स्वीकारेगा नहीं जिससे इच्छित वस्तु मिलना अशक्य होता है. वैसे बालमुनिके पास जाकर आलोचना करने पर भी दोषानुरूप प्रायश्चित्त नहीं मिलेगा. जिससे कमानजंग होना असंभव है. जो झानबाल है वह योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकता है. दुर्जन के साथ यदि मैत्री की तो वह जसी प्रसंग पडनेपर दुःखदायक ही होती है. प्राणिसंयम अथवा इंद्रिय
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