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________________ महारराधना संयम जो पूर्णतया पालन नहीं करता है उसके पास दोषोंकी आलोचना करनेसे उसके अनुरूप प्रायश्चित्त नहीं मिलता है और वह आलोचना अनेक अनर्थ को उत्पन्न करनेवाली होती है. आश्वामः पासत्यो पासत्यास अणुगदो दुक्कई परिकहेइ॥ एसो विमझसरिसो सम्वत्थवि दोससंचइओ।। ६.१ ।। पाश्वस्थानां निजं दोषं पार्श्वस्थो भाषते कुधीः॥ निचिती निचितोपरषोऽपि सरशो मया ॥ ६२६ ।। विजयोदया-पासस्थो पासत्थस्स पार्श्वस्थः पार्श्वस्थमनुगतः । दुक परिकदि दुष्कृतं परिकथयति । सो घि पयोऽपि । मजझसरिसो मत्सरशः। सव्यस्थ वि सर्वेष्यपि यतेषु दोससंचासो दोषसंचयोचतः। तरसेवाति दशममालोचनादोर्ष गाथापंचकेन श्याचष्टे । तत्र तिमभिस्तस्य लक्षणं द्वाभ्यां च क्षेपमाह-- मूलारा--पासत्थो उपलक्षणापास्यावसनकुशीलसंसक्तमृगचरितानामेकतमः । अणुगदो विनीतः सन् । तुकलं दुश्चरितं स्वं । सम्वत्थ वि सर्वेष्वपि तेषु । दोससचयिगो दोषसचयनोद्यतः । अर्थ-पार्श्वस्थ मुनि पार्श्वस्थ मानके पास जाकर उसको अपने दोष कहता है. क्योंकि यह मुनि भी सर्व बता मेरे समान दोषों से भरा हुआ है ऐसा वह समझता है. जाणादि मज्झ एसो सुहसीलन्तं च सम्बदोसे य ॥ तो एस मे ण दाहिदि पायग्छित्तं महल्लित्ति ॥ ६०२ ॥ जानीते मे यतः सर्वा सर्वदा सुखशीलताम् ॥ मायश्चित्तं ततो नेप महरास्यति निश्चितम् ॥ ६२७॥ विजयादया-सो मजा सुहसीलपले जाणादि एप मम दुःखासहत्त्वं वेति। सव्वदोसे य जानाति सर्वदोषांश्व । नो नमानस मे न दाहिरिग मे न दाम्यतिन : महारं पायचितंति महत्मायश्चित्तमिति मत्या कथयतीति संबंध मूलारा गुहसील दु:खा राहत्वं । वहति महदिति परिकथयतीति संबंध: । ८.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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