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________________ मूलाराधना आश्वा १३१८ मूलारा-गुणो गुणान् । तस्मै कुप्यति । तदीयान । अश्वददि निंदति । अपिव्वं च अवाच्यमपि । रुदहिदओ क्रूरचित्तः ।। अर्थ-जब मनुष्य जिसके ऊपर क्रोध करता है तब उस व्यक्तीके गुणोंका महत्व वह भूल जाता है. उसके गुणोंकी निंदा करता है. जो शब्द मुहसे निकालना अयोग्य माना जाता है ऐसे शब्दोंका उच्चार वह बेशक करता है. अर्थात् क्रोधके आवेशमें आकर मनुष्य गाली देता है. असभ्य शब्द बोलता है. क्रोधसे मन कर बनता है. अत एव क्रोधसे मनुष्योंका नारकियोंकासा स्वभाव बनना है. जध करिसयरस धणं वरिसेण समज्जिदं खलं पत्तं ॥ उहदि फुलिंगो दित्तो तध कोहग्गी समणसारं ।। १३६७ || धान्यं कृषीवलस्येव पारका क्लेशतोऽर्जितम् ।। श्रामण्यं प्लोषत रोषःक्षणेन तिनोऽखिलं। १४२०॥ . यिजयोव्या--जह करिसगस्स यथा कर्षकस्य धान्यं वर्षेण समर्जित सलप्राप्त दहति विस्फुलिंगो दीप्तस्तथा क्रोधाग्निदइति घमणस्य सारं पुण्यपयं ॥ मूलारा--करिसयस्स कर्षकस्य । खलं खलज । फुलिंगो अग्निकणः । समसारं यतिधनं । तपः पुण्यं वा ।। ( अर्थ-एक वर्षतक परिश्रम कर उपजाया और खलेमें संचित किया हुआ किसानका घान्य एक छोटेसे अग्निके स्फुलिंगसे नष्ट झेजाता है वैसे क्रोधरूपी अग्नि मुनिके अमूल्य पुण्य नामक वस्तूका नाश कर टालता है. जध उग्गविसो उरगो दब्भतणंकुरहदो पकुप्पंतो॥ अचिरेण होदि अविसो तध होदि जदी वि णिस्सारो ॥ १३६८ ॥ यथैवोपविषः सर्पः क्रुद्धो दर्भतृणाहतः ।। निर्विषो जायते शीघ्रं निःसारोऽस्ति तथा यतिः ॥ १५२१ ।। विजयोदया-जह उग्गविसो उरगो यथोपविष उरगो वर्मणांकुरहतः तस्कृष्टरोषधशमुएनयन् स्पृष्टं सृणादिकं भक्षयित्वा झटिति मिर्विषो भवति । तथा यतिरपि निस्सारो भवत्यचिरेण रत्नत्रयविनाशात् ।।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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