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________________ लागधना आधार SRO विजयोदया-रोसो सत्तुगुणकरो रोषः शत्रोयो मुणो धर्मोऽपकारित्वं नाम सं करोति । अथवा राणा गुणमुपकारं करोति रोषः । यसोऽम्य हि रोपवनेन दह्यमानं तं दृष्ट्या ते तुध्यति । कथमस्य रोषमुस्पावयाम इत्येषमारतास्ते सवापीतिणीयाणं अपणो वा निजामामात्मनश्व यांधवानां शोक करोति । परिभवकरो सवासे स्वनिवासस्थाने परिभवति । से. मामिसंगमयशं नाशयति । मूलारा -- सगासयं आत्माधारं । एतां श्रीविजयो नेञ्छति ॥ मुलारा-सन्तुगुणाकारो शत्रोर्यागुणोऽपकाराख्यस्तं करोति ॥ अथवा शत्रूणां गुणमुपकार करोति । ते हि नरं कोपाग्निना दस्खमान कोधकृतं मतिभ्रंश वा हवा तुष्यन्ति ॥ पीयाणं बांधवानां । मण्णुरो शोकजनकः । सवासे स्वनिवासस्थाने परिभवमानयतीत्यर्थः ।। अर्थ-जैसे अग्नि अपनी आधारभूत लकडीको प्रथम जलाकर पश्चात् स्वयंभी नष्ट होती है वैसे क्रोधभी अपने आधारस्तंभ पुरुषका प्रथम नाश करके अनंतर स्वयं शांत होती है. अर्थ-शत्रूमें अपकार करना यह गुण है वही गुण क्रोधमें भी है अर्थात् क्रोध जीवपर अपकार ही करता है. अथवा क्रोध शपर उपकार करता है क्योंकि जब मनुष्य क्रुद्ध होता है तब उसके शत्रुओंको आनंद उत्पन्न होता है और इसको हमेशा क्रोध किस प्रकारसे उत्पन्न किया जा सकेगा उसका ही विचार कर चे अपने प्रतिपक्षको क्रोधयुक्त करते हैं. क्रोधसे मनुष्य अपने बांधवोंको भी कष्ट पोहोंचाता है उनको शोकयुक्त करता है. क्रोध अपने घरमें अपमानको लाता है और अपने आश्रयस्थानका नाश करता है. ण गुणे पेच्छादि अवददि गुणे जंपदि अपिदव्वं च ।। रोसेण रुदहिदओ णारगसीलो णरो होदि । १३६६ ।। गुणागुणो न जानाति वचा जल्पति निष्टुरं ।। नरो रौद्रमना रुष्टो जायते नारकोपमः ॥ १४१९॥ विजयोच्या- गुणे पेदि गुणं न पश्यति यस्मै कुप्यति । अवदति निंदति । गुणे गुणानपि सदीयान् । जंपदि अजंपिदव्वं च यदत्यपाच्यमपि । रोखण कहहिदो रोपेण रौद्रचित्तः । पाारगसीलो णरो वदि नारकशीलो भवति नरः॥ १२१५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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