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भावोस:
मूलाराधना
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मूलारा---अपिओगवियाणया पनुयोगज्ञाः । चियाणता विशेषण हेयोपादेयतालक्षणेन लक्षयन्त: 1 हिडिल्लपदं अधोधःपादनिक्षेपं जघन्यतापरिणामप्रवाहपतनं ध । मंदावमाशुभपरिणामो सशुभरिकामायनाकर्मी वयनुभावौ प्रकर्पयति ।
अर्थ-द्रव्यथिति और भावश्रितिको जानने वाले अनुयोगज्ञ आचार्य ऊपर जानेके लिये नीचे नीचेक स्थानमें पदनिक्षेप करना प्रशंसनीय समझते नहीं है.
भावार्थ-- अणुयोगवियाणया' इस पदमें अनुयोग शब्द सामान्यचाचक है तो भी चरणानुयोगका वाचक समझना चाहिये, अतः 'अणुयोगविपाणया' इस पदका अर्थ आचारांगके जाननेवाले विद्वान् एमा समझना चाहिये. अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगके ज्ञाता ऐमा भी अर्थ होता है. चार अनुयोग ज्ञाना श्रुतके माहात्म्य को जाननेवाले आचार्य ऊपर जानेके लिये नीचे नीचे पदनिक्षेप करते जाना प्रशंसनीय नहीं समझाने हैं, अभिप्राय यह है कि, शुभ परिणाम युक्त साधुओंको उस परिणामोंकी वृद्धि करनेकाही प्रयत्न करना चाहिय, उत्तरोत्तर अशुभ अथवा जघन्य परिणामों के प्रवाहमें नहीं बह जाना चाहिये. उत्कृष्ट श्रुतज्ञानरूपी नत्रोंको धारण करने वाले आचार्य जघन्य परिणामोंकी निंदा करते हैं.
जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मंद हो रहे हैं वह यति क्रमसे विपुल और बढ़ा कर्मरूपी अंधकार कैसा नष्ट करने में समर्थ होगा। प्रत्युत वह नाशके सम्मुख हुए दीपके समान कर्मरूप अंधकारको बढ़ाने में सहायकही होगा. मंद होनेवाले शुभपरिणाम अशुभ परिणामोंकी उत्पत्तिम कारण बनते हैं, ऐसे परिणामोंसे कर्मका स्थितिबंध
और अनुभागबंध पुष्ट होता है. और दीर्घ संसार में भ्रमण करना पड़ता है. सम्यग्ज्ञानरूपी वायुसे प्रेरा गया शुभपरिणामरूप अग्नि जब बढ़ता जाता है तब वह कर्मरूपी वृक्षको रसहीन बनाकर उसको धराशायी कर देता है, अर्थात् काँका नाश करता है,
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धितेस्पायस्थानपरिद्वारामधानायोत्तरगाथा
गणिणा सह संलाओ कजं पइ सेसएहि साहूहि ॥ मोणं से मिच्छजणे भज्ज साणीसु सजणे य॥ १७४ ॥