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________________ लागधना अर्थ--इस कवचसे युक्त होकर अपक देव और मनुष्यक भोगों की अभिलाषा नहीं करता है. यह स विषयन्छा मुक्तिमार्गक विरुद्ध है. ऐसा समझकर धपक उसका त्याग करता है. आश्वासा इहेसु अणिठेसु य सदफरिसरसरूवगंधसु ॥ इहपरलोए जीविदभरणे माणावमाणं च ।। १६८८ ॥ सम्वत्थ णिविसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा ॥ खवयरस रागदोसा ह उत्तम; विराधेति ॥ १६८९ ।। शन्दे रूपे रसे गंधे स्पर्श साधो शुभेऽशुभे ।। सर्व समतामेहि तथा मानापमानयोः ।। १७५५ ॥ समानो भव सर्वत्र निर्विशेषो महामते! ।। रागद्वेषोदये जतोरुत्तमार्थो विनश्यति ।। १७५६ ।। विजयोदया-स्पएं। मलारा--परलोगे इहलोके इष्टे अनिष्ट वा तद्वत्परलोकेऽपि अथवा इहलोके परलोके च सम इति ग्राह्यम् । मूलारा-णिब्रिसेसो इष्टानिष्टविकल्पविमुक्तः । तदो निर्विशेषकाररूपचोपगृहीतत्वादा। उत्तम रत्नत्रयं, सद्धघानं, समाधिमरणं बा विराधेन्ति बिनाशयतः ॥ अर्थ--इए और अनिष्ट एसे शब्द, रस, गंध, स्पर्श, रूप विषयोंमें, इहलोक और परलोकमें. जीवित और मरण में, मान और अपमान में यह क्षपक समानभाव धारण करता है. अर्थात् रागद्वेष रत्नत्रय, उत्तम ध्यान और समाधिमरणका नाश करते हैं. इसीलिये क्षपक अपने हृदयसे इनको दूर करता है. उत्तरमाथाद्वयं जदि वि य से चरिमंते समुदीरदि मारणंतियमसायं ।। सो तह् वि असंसूढो उवेदि सब्वत्थ समभावं ॥ १६९० 11
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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