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भाश्वासः
मूलाराधना
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पर्वतेषु यथा मेमश्चक्रवर्ती गधा नषु ॥
जीवरक्षाबतं सारं सर्वस्मिन्नपि ते तथा ।। ८१७ ।। विजयोदया-जह पब्यदेसु सर्पमिक पर्वतेभ्यो मध्य पश्चतानाजीलेषु च उन्नततमेति जानीहि । प्रताना, शीलानां, गुणानां च अधिष्ठानमाई सेति वदति ॥
अर्थ-जसे सर्व जगतमें समस्त पर्वतोमें मेरुपर्वत बडा है वैसे यह अहिंसा बत संपूर्ण शील और समस्त व्रतोंमें बहा है.
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सव्वो वि जहायासे लोगो भूमीए सव्वदीउदधी ॥ तह जाण अहिंसाए वदगुणसीलाणि तिठति ॥ ७८६ ॥ यथाऽकाशे स्थितो लोको धरण्यांद्वीपसागराः ॥
सर्वव्रतानि तिष्ठन्ति जीवत्राणवते तथा ॥ ८१८॥ विजयोदया-यथा सर्वलोक ऊोधस्तियग्विकल्पः आकाशाधिकरणः । भूमौ च स्थिताः सर्षे दीपा उवधयश्च । तथैव जाण जानीहि । पतगुगशीलाम्यहिसायां तिष्ठन्ति इति ॥
यह अहिंसा व्रत, गुण और शील सबों को आधार है ऐसा कथन
__ अर्थ--उज़लोक, अधोलोक और मध्य लोक ऐसे लोकक तीन भेद हैं परंतु यह लोक भी आकाशमें है. अर्थात् त्रैलोक्यका आधार आकाश है. इस भनलमें सर्व द्वीप और समुद्र आधेय होकर रहे हैं, वैसे व्रत गुण, और शील ये सब अहिंसाके आश्रयसे रहत हैं.
कुव्वतस्स वि जन्त तुंबेण विणा ण ठंति जह अग्या ॥ अरएहिं विणा य जहा पठं गेमी दु चक्करस ॥ ७८७ ॥ यथा तिष्ठति चक्रस्थ न तुंन विमारकाः ॥ गतविना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ।। ८१९ ॥
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