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मूलाराधना
महान् कारण है. ऐसा समझकर दयावान् मनि उससे पूर्ण विरक्त होते हैं यह उनका चौथा ब्रह्मचर्य महावन है. ..
परिग्रहम छहाँ प्रकारके जीवोंको चाधा पोहोंचती है. यह ममन्त्रपरिणामके लिय कारण है. इसलिय सर्व परिग्रहोंका त्याग करना यह परिग्रहत्याग नामक पांचवा महावत है.
इन व्रतका पालन करनेकेलिए रात्रिभोजनका त्याग करना यह छठा प्रत हैं अहिंसामहाबत सर्व जीवोंको विषय करता है, अश्वीन सर्व जीवोंपर दया करना यह अहिंसा महाव्रतका विषय है, अचार्यमहाव्रत और परिग्रह त्याग महावत ये सर्व पदाथविषयक है, अर्थात् बाह्य धन धान्यादिक पदार्थोंका त्याग करनपर इन ब्रतोंकी प्राप्ति होती है, और बचे हुए व्रत अर्थात् सत्यमहाव्रत और ब्रह्मचर्यवत ये दो व्रत द्रव्योंका एकदेश विषय करत है. यही अभिप्राय परमम्मि सव्वजीवा इस गाथामें आचार्योने दिखाया है.
ज्येष्ठ नामक सप्तम स्थितिकल्पका वर्णन--
जिसने पंच महामत धारण किये हैं. और जो मरत नर्ष की दीक्षित है ऐसी आपिकासे भी आज जिसने दीक्षा ली है ऐसा मुनि ज्येष्ठ माना जाता है. पुरुष संग्रह, उपकार और रक्षण करता है. जगतमें पुरुषने ही धर्मकी स्थापना की है. इसलिए उसको ज्येष्ठता मानी है. इसवास्ते सर्व आर्यिकाका मुनिका विनय करना यह कर्तव्य है,
स्त्रिया पुरुषसे कनिष्ठ मानी गई हैं, वे अपना रक्षण स्वयं नहीं कर सकती. दूसरोंसे वे इच्छी जाती है. अर्थात पुरुष जब उसकी इच्छा करना है तब वे उसका प्रतीकार करनमें असमर्थ होती हैं. उनमें म्वभावतः भय रहता है, कमजोरी रहती है, पुरुष ऐसा नहीं है अतः वह ज्येष्ठ है. यही अभिप्राय 'जेणिच्छी हु लघुसिगा इस सूत्र में कहा है..
८ अचलतादि कसपमें रहने हुए मनीको जो अतिचार लगते है उनके निवारणार्थ प्रतिक्रमण करना यह अष्टम स्थिति कल्प है.
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे प्रतिक्रमणके छे भेद हैं. अर्थात् नाम प्रतिक्रमण, स्थापनाप्रतिक्रमण, द्रव्य प्रतिक्रमण इत्यादि छह भेद हैं.