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मूलाराधना
भरश्वान
परंतु जहाँ ऐसे दोष होनेकी संभावना नहीं है वहां मुनिको आहार लेने के लिये मनाई नहीं है, गत्यंतर न हो अथवा श्रुतज्ञानका नाश होनेरा प्रसंग हो तो उसका रक्षण करने के लिये राजगृहमें आहार लेनेका निषेध नहीं है. ग्लान मुनि अर्थात् बीमार मुनिके लिये राजपिंह यह दुर्लभ द्रव्य है. बीमारी, ध्रुतज्ञानका रक्षण ऐसे प्रसंगमें राजाक यहां आहार लेना निषिद्ध नहीं है.
५चारिय संपत्र मनिका अपने गुरूका और अपनेसे बहे पनिओंका विनय करना शुश्रुषा करना यह कर्तव्य है, इसको कृतिकर्म नामक स्थितिकल्प कहते हैं.
६ अतारोपण योग्यता नामक छटा स्थितिकल्प हैजिसको जीवोंका स्वरूप मालुम हुआ है ऐसे मुनीको नियम से प्रत देना यह छहा स्थितिकल्प है.
जिसने पूर्ण निग्रंथावस्था धारण की है उद्देशिकाहार और राजपिंडका त्याग किया है. जो गुरुभक्त और विनयी है वह बतारोपणके लिये योग्य है,
व्रत देने का क्रम इस प्रकार है-जब गुरू बैठते हैं और आर्यिकायें सम्मुख होकर घटती है, ऐसे समयमें आवक और श्राविकाओंको त दिये जाने हैं. प्रत ग्रहण करनेवाला मुनि भी गुरुके बायें तरफ बैटना है. तब गुरु उसको वत्त देते हैं,
ब्रोंका स्वरूप जानकर पापोंसे विरक्त होना वह वन है, वृतिकरण, छादन, संवर, विरति ये सब शब्द प्रतके वाचक है. यही अभिप्राय 'णाऊण' इस माथामें कहा है.
पहिले तीर्थकर और अन्तिम तीर्थकर इन्होंने रात्रिभाजन त्याग और पंच महाबोंका उपदेश किया है. प्रमत्त योगसे पापी के प्राणोंका घात करना इसको हिंसा कहते हैं. इस हिंसासे विरक्त होना यह प्रथम अहिंसा महावत है, असत्य भाषणसे प्राणिऑको दुःख होता है ऐसा समझकर दयावान मुनि सत्य बोलते हैं. यह उनका सत्य महावत है. यह मेरा है ऐसा संकल्प जिसके ऊपर है ऐसी वस्तु लेने पर लोक उस वस्तुके विरहसे दुःखित होते है यह देखकर दयासे उनकी वस्तु लेनका त्याग करना यह तीसरा अचौर्य महावत है, सरसोंसे भरी हुई नलिका तपी दुई लोहशलाका घुसनेसे सब सरसों जलकर भस्म हो जाती है उसी तरह योनी में पुरुषंद्रियका प्रवेश होने से वहांके सर्व सूक्ष्म जीव नष्ट होते हैं. यह मैथुन रागभाव को उत्पन्न करता है, यह कमबंधका
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