________________
इलाराधना
आश्वा
जा
भट्टिणी, भट्ठिदारिगा इत्यादि अयोग्य नामोच्चारण करनेपर उसका परिहार करना यह नाम प्रतिक्रमण है.
असंयत, मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रतिबिंब अर्थात् प्रतिमाकी पूजा वगैरह करनेपर उससे परावृत होना यह स्थापना प्रतिक्रमण है.
द्रव्य के सचित्त. अचिन और मिश्र ऐसे तीन भेद हैं इनका त्याग करना यह द्रव्यप्रतिक्रमण है. जहां बम स्थावर जीय बहुत है ऐसे क्षेत्रका त्याग करना अथवा जहां स्वाध्याय करनेमें, ध्यान करनेमें पाधायें उत्पन्न होती हैं ऐसे प्रदेशोंका त्याग करना बह क्षत्र प्रतिक्रमण है.
मंध्याकालमें. स्वाध्यायकाल वगैरह कालोंमें आना जाना वगैरह क्रियाओंका त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है.
मिथ्यात्य, असंयम, कषाय और योग इनसे निभूत होना यह भाव प्रतिक्रमण है.
श्री आदि तीर्थकर और महावीर स्वामीन प्रतिक्रमण के साथ मुनिधर्मका उपदेश किया है. अर्थात प्रतिऋपण दररोज करना ही चाहिये ऐसा उन्होंने उपदेश दिया है, परंतु बीचके बावीस तीर्थकरोंने अपराध होनेपर अतिक्रमण करना चानिय का उपदेश दिया है. इस प्रतिक्रमण के देवसिक, सत्रिक, ईयोपथिक भिक्षाचर्या. पाक्षिक, चातुभार्मिक, सांरत्सरिक और उत्तरार्थ एन सात भेद हैं. श्रीआदितीर्थकर और महावीर तीर्थकरप्रणीग पानवे धर्ममें और अन्य तर्थिकर ग्रणीत चौथे धम प्रतिक्रमण के कालभेद बताये हैं. जब अतिचार लगते हैं तब प्रतिकमण करना चाहिये अर्थात् अपने आत्माका अवलोकन करना चाहिये.
युनिको आहारमें, ईपिथम, सर्व प्रकारके स्वम, जागृतावस्था इत्यादि समयमें जो दोष उत्पन्न होते हैं उनका प्रतिक्रमण करना चाहिये. आदि भगवान् और महावीरके समयमें हुए मुनिओंको छोडकर बीचके बाबीस नीर्थकरके समयके मुनि जब अतिचार लगते थे तयही प्रतिक्रमण करते थे. अर्थान् आहार, पु स्वमा ईयापध इत्यादिक विपयमें जब दोष लगता था तब ही वे प्रतिक्रमण करते थे. अन्यसमय में नहीं. आहार, इर्यापथ अर्थात् वंदनादिकके लिये एक स्थानसे दूसरे स्थानको जाना दुःस्वप्न इत्यादिकके समयमें अपनी प्रवृत्ति सातिचार हो या निरतिचार हो दोनों समयमें भी आद्यन्त तीर्थकरकालीन मुनि प्रतिक्रमण करते हैं. अथात् दोष
मा