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मृलारापना
आश्वाम।
लगनेपर वा न लगनपर प्रतिक्रमण करना ही चाहिये ऐसी आद्यत तीर्थंकरोंकी आज्ञा है.
मध्यम तीर्थकरके शिष्योंकी धुद्धिपी उनका चार एकात्र रहता था. उनका अपने कार्य पर लक्ष्य दृद्ध बना रहता था, इसलिए जो कार्य वे करते थे उसकी गर्दा करते थे. परन्तु आयत तीर्थकरके शिष्य मोहयुक्त, चंचलचित्त होते थे अतः उनको अपराधोंका स्मरण नहीं रहता था इसवास्ते वे सबका प्रतिक्रमण करते हैं. इस विषयमें अंध घोडेका उदाहरण उपयुक्त है
किमी गजाका घोडा अंधा होगया तत्र उसने वैधक पुत्रको औषध देने के लिए कहा.. वैद्यपुत्रको औषधि पालम नहीं थी. वैद्य नो अन्य गांवका चला गया था अतः उसके पुत्रने बाद के नेत्रपर सर्व औषधियोंका प्रयोग किया, उसमे घोडे के नेत्र अन्छे होगये. इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमण दंडक यदि स्थिर चित्त न होगा. दसरमें यदि न हो तो तीसरे में स्थिर होगा इसलिये सर्व दंडकोंका उच्चारण करना उसके लिये योग्य है. इसमें कोई विरोध नहीं है. सब भी दंडक कर्मक्षय करने में समर्थ होते हैं.
मासैकवासितानामक नौवे स्थितिकल्पका वर्णन
संतादि छहो ऋतुओंममे एकेक ऋतु में एक मासपर्यंत एकत्र मुनि निवास करते हैं, और एक मास विहार करते हैं. यह नौवा स्थितिकल्प है. एकही स्थानमें बहु-चिरकाल रहनेसे उद्गमादि दोषोंका परिहार होता नहीं. वसतिकावर प्रेम उत्पन्न होता है. सुख में लंपटपना उत्पन्न होता है. आलस्य आता है, सुकुमारता की भावना उत्पष होती है, जिन श्रावकोंके यहां आहार पूर्व में हुआ था वहाही पुनरपि आहार लेना पड़ता है. ऐसे दोष उत्पन्न होते है. इसलिये मुनि एकही स्थानमें चिरकाल नक रहते नहीं है.
___पाद्य नामक स्थितिकल्पका वर्णन--
वर्षाकालके चार मासमें एकही स्थानमें रहना अश्रोत भ्रमणका त्याग करना यह पाध नामक दसवां स्थितिकल्प है. वर्षाकालमें जमीन स्थावर और वस जीवोंसे व्याप्त होती है, ऐसे समयमें मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा. जलवृष्टिसे और थंड हवा बहनेसे आत्माविराधना होगी अर्यात् ऐसे समयमें विहार करनेसे मुनि अपने आचारस च्युत हो जायेंगे. वर्षाकालमें भूमि जलमय होनेसे कुवा, खड्डा इत्यादिकोंमे गिर जानेकी संभाबना होती है. खूट, कंटकादिक पानीसे ढक जानेसे विहार करते समय उनसे बाधा होनेकी संभावना होती है.
ARTHA