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नूलाराधना
कीचडमें फस जावेंगे इत्यादि दोषोंसे बचने के लिये मुनि एकसो वीस दिवस एक स्थानमें रहते हैं. यह उत्सर्ग
भावासः नियम है. कारणवश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थानमें ठहर सकते हैं. आषाढ शुक्ल दशर्मासे प्रारंभ 181 कर कार्तिक पौर्णिमासीके आगे भी और तास दिनतक एक स्थान में रह सकते हैं, अध्ययन, वृष्टीकी अधिकता, शक्तीका अभाव, यावत्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते है. यह ऊपर लिखा ही है. यदि मारी रोग, दुर्भिक्ष, ग्रामक लोकोंका अथवा देशके लोकोंका अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकोंमें जाना, गच्छका नाश होने के निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मासमें भी अन्य स्थानको जाते हैं. नहीं जाने पर उनके रत्नत्रयका नाश होगा. इसलिये आषाढ पूर्णिमा च्यात होनेपर प्रतिपदा वगैरह तिथिमें अन्यत्र चले जाते हैं. इसलिये बीस दिन एफसों वीस दिनों में कम किये जाते है. इस तरह कालकी हीनता है. यह सब वर्णन दसवे स्थितिकल्पका समझना चाहिये. ये दसकल्प यत्याचार के भेद हैं.
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एदेस दससु णिचं समाहिदो णिच्चयजमीरू य॥ खवयरस विसुद्धं सो जधुत्तचरियं उपविधेदि ॥ १२२ ॥ खतप्ररोहणाईचं ज्येष्ठत्वं च प्रतिक्रमः ॥ मासकन स्थितिः पर्या स्थितिकल्पा दशरिताः ॥ ४३४ ॥ अवयभीरुको नित्यं दशस्वेषु यः स्थितः ॥
क्षपकस्य समर्थोऽसौ वक्तुं चर्यामदूषणाम् ।। ४३५ ।। विजयोदया-पदेसु ससु णिचं पलेषु दमास्थितिकल्पेषु नित्यं । समाहिदो समाहितः । णिश्चवमभीरू य नित्यं पापभीरुः । खबगस्त क्षपकस्स । विसुदं मधुसरिय यथोक्तां चर्याम सौ उपविधेदि स विदधाति ।
दशधा स्थितिकल्पयुक्तः क्षपकस्य किं करोतीत्याहमूलारा-उवत्रिधादि करोति ।। अर्थ-जो आचार्य इन दश प्रकारके कल्पोंमें सदा तत्पर रहते है. जो हमेशा पापकापासे भयभीत हैं
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