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मूलाराधना
आश्वासः
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दुःखादिक परिणाम आत्मामें उत्पन्न होते हैं और इनका अनुमानज्ञान शरीरमें रोमांच, मुखमें विकास, म्लानि इत्यादि कार्यके दीखनेपर होता है. वसे नोइंद्रियमतितान आमच्लासे किसी एक पदार्थ में एकाग्र होता हुआ अनुभवमें आता है.
जिसका मन एकाग्र और वश है ऐसा मुनि रागकोषादि विकारोंसे रहित, निरतिचार चारित्रको न थका हुआ यावज्जीव धारण करता है. चारित्रभार धारण करना यह एकाग्रचिचका फल है, बिना एकाग्र चित्तके चारित्र घारण नहीं होता है.
आगकी माथायें चंचल मनसे होनेवाले दोपोंका वर्णन करती हैं. उस वर्णनसे मनको निश्चल करना चाहिये यह अभिप्राय उत्तर गाथाओंका व्यक्त होता है. उदाहरणके द्वारा यही आभिमाय आचार्याने पुष्ट किया है जैसे-उज्जयिनीका कोई आदमी-दाक्षिणादिशाके तरफ जानको उद्यत हुआ. उसको देखकर कोई पुरुष कहता है द्रमिल देशमें धान्य थोडा है, और क्षुद्रलोक वहां अधिक है तो उस पुरुपके वचनका आभिमाय यह निकला कि उज्जयिनीदेश में सुभिक्षता है और यहांके लोक सज्जन हैं, वैसे चंचल मनके दोषवर्णनसे मनको निश्चल करना चाहिये ऐसा आभिनाय समझना चाहिये.
चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलइ अणिहुदमणस्स ॥ कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खू ।। १३३ ॥ तितवाविव पानीयं चारित्रं चलचेतसः ।।
वचसा वपुषा सम्यक कुर्वतोऽपि पलायते ।। १३६ ॥ विजयोदया-चालणिगर्ग व उदयं उनकमिय चालनीगतं । सामणं सामान्य समानभायो । गल गलति। कस्स आणिटुवमणस्स अनिभृतं चतो यस्य । कायेण य वायार कायेन च वचसा न । जदि विचरदि यधपि चरति प्रवर्तते भिक्षुः । जधुत्तं यथाशानेणोक्तं । तथा याकाथाभ्यामाचरतोऽपि मनोनिभृतताभावे धामण्यं नश्यतीत्यर्थः । तस्मातःसमाधानं कार्यमित्युपसंहारः।
चलधिरावदोषण्यापनव्याजेन मनःस्थैर्य कार्यतया ज्ञापयतिमूलारा-अणिहुदं चले।