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मूलाराधना
आश्वास:
मितापदे
अथ योग्यस्य, गृहीतमुक्युपायलिंगत्य, ज्ञानभावनोद्यतस्य,विनवे वर्तमानस्य,रत्नत्रये मनसः सम्यगाधान न्याय्यगायादशकमादिशति तत्र ताबनचेतः समाहित कीरक् तस्य वा समाहितस्य किं फलमिति प्रश्ने सतीदगाइ।
मूलारा-चित्त भाषमनः । तल्लक्षणं यथा-गुणदोपविचारस्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावननः । तदभिमुख स्वास्यैवानुमाही पुद्गलोचयो द्रव्यमनः ॥ १ ॥ वज्जियविसोत्तिग वर्जितविस्रोतकं धर्जितानि निरूपाणि स्रोतांसि पापासघकारणाशुभपरिणामप्रयाहा येन तत्परित्यक्ताशुभपरिणतिप्रसरमित्यर्थः । बसगं वशवति । यन्त्र नियुक्त तत्रैव तिष्ठतीत्यर्थ पताशपणोपेतं समाहितमित्युच्यते । सामण्णा नागिनभार ! अपरितनो प्रस्नः।
विनयके निरूपणके अनंतर आचार्य समाधिनिरूपण करते हैं. जो समाधिमरणकलिए योग्य है, जिसने मुनिलिंग धारण कर ज्ञानाम्याससे विनयगुण धारण किया है, जिसका मन रत्नत्रयमें लीन हुआ है उसको आराधना करना योग्य है. ऐसा आगेके अधिकारके लिये पूर्व संबंध ध्यान रखना योग्य है. इसके अनंतर एकाग्र अन्तःकरणका क्या स्वरूप है ? उसका फल क्या है ऐसे दो प्रश्नोंका उत्सर आचार्य देते हैं
अर्थ--जिसके चित्तने अशुभ विचारपरिणतिको छोडा है, जो वश हुआ अर्थात् जिस पदार्थमें उसको नियुक्त करते हैं वहां ही वह स्थिर होता है तो वह चिस समाहित हुआ है ऐसा समझना चाहिये. अन्य आचार्य मनका एवं विचार करते हैं-चित्त किसको कहते हैं? यदि मनको चित्त कहते हो तो उसके द्रव्यमन और भावमन ऐसे दो भेद हैं. यहां कोनसा मन समाहित होता है ऐसा हम समझे द्रव्यमन तो समाहित होता नहीं क्योंकि वह पुद्गलस्वरूपी है. वह कर्मका ग्रहण करनेमें यद्यपि निमित्त कारण है तथापि स्वयं बह रागद्वेषादि कर्मरूप परिणतीको प्राप्त होता नहीं है. इसलिये द्रव्यमनका वज्जिदविसोनिंग' यह विशेपण नहीं है. क्योंकि पुद्गल मन अभात् द्रव्यमन आत्माके वश में रहनेवाला नहीं हैं अतः यहां चित्त शब्दसे भावमन ही समझना चाहिये. भावमन माने मनस उत्पन्न होनेवाला ज्ञान वह रागद्वेपादि विकारके साथ रहनेवाला और न रहनेवाला ऐसे दो भेदोंसे युक्त है, अतः भावमनका ही 'वज्जिदविसोतिर्ग' यह विशेषण समझना युक्तियुक्त है, वासगं यह भी विशेषण उसमें ही जुड़ता है.
नोइंद्रियमतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे नोइंद्रियमतिज्ञान आत्माके वश होकर रहता हूँ, इसका खुलासा इस प्रकार समझना-नट, वेश्या, नर्तकी वगैरोंके हावभाव, नृत्यादि कार्य देखनेपर प्रेम, कोप, मय,
मान
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