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मनासंग
आवा
स्वनिःश्रेण्योन्नतस्यापि दुरारोहस्य लीलया ।।
मस्तक नरवृक्षस्य नीचोऽप्यारोहति दुतम ॥ ९५६ ॥ बिजयोदया-माणुण्ण यस्स मानोन्नतत्य पुसमस्य शिर आरोहति नीचपुरुषोऽपि महिन्टानिःण्या दीर्घमिव दुमं॥
मूलाग--दिग्बदुम पुच्चभम् ॥
अर्थ-स्त्री रूपी नसेनीके आश्रयसे नचि पुरुष अभिमानसे उन्नत ऐसे पुरुषरूपी वृक्षके मस्तकपर चढ़ बठता है जैसे नसेनीके द्वारा ऊंचे वृक्षपर लोक चहते हैं. अभिप्राय यह हैं. नीच पुरुषका आश्रय कर अपने पतिका अभिमान मट्टी में मिला देती है. उसके कीर्तिक क्षय कर देती है.
पव्वदमित्ता माणा पुंसाणं होंति कुलबलधणेहिं ॥ बलिरहिं वि अक्खोहा गिरीव लोगप्पयासा य ॥ १४ ॥ मान्या गे संलि मानामक्षोभ्या चलिनामपि ।।
सर्वत्र जगति स्याता महांतो मंदग इव ।। ९५७ ।। विजयोदया--पध्यवामित्ता माणा भवन्ति मानानि पुरुषाणां कुलचलधनैः । बलिभिः अक्षोभ्याणि गिरिवलोक प्रकाशभूतानि च।
- मूलारा--मरणा अहंकारसः। यलिएहि वि बलवद्भिरपि । अक्लोमा चालवितुमशक्याः । गिरीघ लोगपगासा जगति न्याता मेरवो यथा । अत्र पर्वतसामान्यार्थाऽपि गिरिशब्दो गिरींद्रवृत्तिर्गृह्यते ताबिशेषणयोगान् । उक्तं च
पर्वतसदशा माना कुलबलविभवैर्भवन्नि पुरुषाणाम् ।।
गिरिंगजवत्प्रकाशा ये चाक्षोभ्या महहिरधि ॥ अर्ध-उच्च कुल . बल-सामर्थ्य, और धनसे पुरुपोंका मान पर्वत तुल्य बडा होना है. उनके मानका ध्वंस करनके लिय बलिष्ठ पुरुष भी असमर्थ होते हैं. और जगतमे उनका मान पर्वतके समान मवत्र प्रसिद्ध होता है
ते तारिसया माणा ओमच्छिज्जंति दुठमहिलाहिं ॥ जह अंकुसेण णिस्साइज्जइ हत्थी अदिबलो वि ॥ ९४१॥