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मूलाराधना
आश्वास
फन योग्य आ हारण माधि मरण पारना नाहि. अब आलंदविधिका स्वरूप टीकाकार कहते हैं
पागाम, गागरुक ना अनुमति मिलना, प्रमाण, स्थापना, आधार मार्गणा और अथासंद मास फरप इनका वर्णन इस प्रकरण में आवंगा.
जिनको आगमार्थका स्वरूप ज्ञात हुवा है, अपना मुनिअवस्थाका कर्तव्य जिन्होंने किया है, परीषद और उपसर्गको जीतनेमें जो समर्थ है, अपना बल और वीर्य जिन्होंने व्यक्त किया है, ऐसे मुनि क्या हम आलंद विधि धारण कर सकते हैं या प्रायोपगमनविधि धारण कर सकते हैं ऐसा विचार मनमें करते है. परिहार विधि धारण करने में असमर्थता मालूम करनेपर अथालंदविधीको धारण करते हैं. अथालंदविधीका स्वीकार करनेकी इच्छा रखनेवाले तीन, पांच, सात अथवा नउ मुनि जो कि ज्ञान और दर्शन संपन्न है, तीत्र संसारभीरुताको धारण करते है, धर्माचार्यके परण कमलका आश्रय करते हैं, जिनको अपने सामथ्र्यका ज्ञान है, अपनी आयुष्य स्थिति जिनको मालुम हो चुकी है, धर्माचार्यको प्रार्थना करते हैं. हे भगवन् । हम अथालंदविधीका आभय लेना चाहते हैं, धर्माचार्य उनकी विज्ञप्ति सुनकर जो धैर्यहीन, शरीरसामध्यहीन है, जिनके परिणामोमें अतिशयपना नहीं है उनको स्यागकर, धैर्यादिगुणविशिष्ट पनिओंको अनुशा देते हैं. गुरुले परवानगी मिलनेपर गुरुके साथ वे प्रशस्त स्थानमें ठन्चरफर लोप करत है. गुरूके सामने दोपोंकी आलोचना करते है. आलंदविधीके प्रतोंका अपनेमें आरोपण करते है. सूर्यादयके अनंतर घोट समयमही कल्पस्थित सुनिआमस एकको जो कि गणकी आलोचना सुननेके लिय और व्रतशुद्धि करनेके लिये उद्यत है, स्थापना करते हैं. वह ही गणके लिय प्रमाणभून माना जाता है, अपनेका साहाय्य करनेवाले जितने मुनि गणसे निकले है उसने मुनि संघमें उनके स्थान में स्थापन करने चाहिये. अब इन मुनिका आधारक्रम फड़त है--
था विभिगो गालनेवाले मुनि औसगिक लिंग धारण करते हैं. अर्थात् नमही रहते हैं. दहोपकारार्थ आचार, घसरिफा, कागबाट छिकाया आभय लेते हैं. घावी सच परिग्रहका त्याग करते हैं, तृण, चटाई, फलक
गरह उपाधिका माग फरत है. प्राणिमयमका रक्षण करने के लिय और जिनरूपताका संपादन करने के लिये पिडिफा धारण करते हैं. यदि धैर्य और चलसे रहित न होंगे तो अन्य ग्रामको जाते समय, मठादि भूमीके तरफ गमन करते समय, आहार लेते समय, बैठते समय, प्रति लेखन नहीं करते है अर्थात पिच्छिकासे शरीरस्पर्शन नहीं
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