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आश्वासः
मूलाराधना
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जो अबुद्धीभो यो युधिर द्वितः । सो गरि लिंगधारी स वृथाहंगी भयति, द्रव्यागं धारयति । संजयसारेण णिस्सारी संयमाख्येन इंदिप प्रापासयमविकरपेन सारेण निःसारः । एतदुक्तं भवति---
उदमादिदोपकुष्टसिदिमाहिणः संयमधुर्याटिंगधारणवयय कथयति
मूलारा-सीदायदि तिथिळयति । विहारं चारित्रं । सुइसीलगुणेहिं यथेपिधादिप्रयोगसुखप्रवृत्तसमाधानाभ्यासैः । अथुद्धिगो बुद्धिरहितः । णवरि लिंगधारी घृयागी न यतिन गणधर इति भावः । णिस्सारो दरिद्रः ।।
अर्थ यथेष्ट आहारादि सुखी में तल्लीन होकर जो अबुद्धि मुनि रत्नत्रयमें अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है वह द्रव्यलिंगधारी मुनि है ऐसा समझना चाहिये. इंद्रियसंयम और प्राणिसंयमसे वह निःसार है. इसका अमिप्राय यह है
HINDISTANSARASTARA
पिंडं उवधि सेग्जामविसोधिय जो खु मुंजमाणो हु॥
मूलठ्ठाणं पत्तो बालोतिय णो समणबालो ॥ २९२ ॥ विजयोदया–य उद्भमाविदोषोपहतमादार, उपकरणं, घसति घा गृजाति तस्य नेन्द्रियसंयमः, नैव प्राणसंयमः, ततोऽसौ केवलं नमन यतिन गणधर प्रति निगयते ।
अर्थ-उद्मादि दोषांसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है. जिसको माणिसंयम और इंद्रिय संयम है ही नहीं वह साधु मूलस्थानको प्राप्त होता है. यह अज्ञानी है, वह केवल नन है, वह यति भी नहीं है और न गणधर ही है.
कुलगामणयर-जं पयहिय तेसु कुणःइ दु ममति जो ॥ सो गरि लिंगधारी संजमसारेण जिरसारो॥५३ ।। ममत्वं कुरुते हित्वा यो राज्य नगरं कुलम् ।। तस्य संयमहीनस्य केवलं लिंगधारणम् ।। २९१ ॥