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मूलाराधना
आश्वास
मूलाय - गणधरमेरा आचार्यमर्यादा गणिव्यवस्था इत्यर्थः । आयारत्याणं आचारस्थानां गणिनामित्यर्थः। लोगसुहागुर दार्ग लोकानुबर्सिनो सुम्यसनां च । अथवा लोकसुखं नाम मुष्टाहारभोजन, यथाकानं मृदुशयनासन, सर्व रम्ये बमान बननं वत्र माना। लोगसुकीमियान लोकअतिथिटानिशानं । अपायो आत्मेन्टेव केवला न मूत्रोक्ता मगधरणादा। छाए यथेच्छया लोकसुण्यानुरतानामित्यनेन संभ्रषः ।
अर्थ-यह अच्छा संयत मुनि है, ऐमा मेरा जगत में यश फैले अथवा अपने मतका प्रकाशन करनसे मरेको लाभ होगा ऐसे भाव मनमें धारण न करके केवल चान्त्रि रक्षणार्थ ही निदाँप आहारादिकाको जो ग्रहण करता है यही सच्चरित्र मुनि समझना चाहिथे.
ज्ञानाचारादिक पांच प्रकारके आचारों में जो स्थिर रहे हैं, अथान पांच आचारोंका जो निदोष पालन करते हैं, उन आचायोंकी जिनागममें उपर्युक्त मर्यादा कही है, परंतु जो लोकोंका अनुसरण करते हैं, और सुखकी इच्छा करते हैं उनका आचरण कुछ मर्यादास्वरूप माना नहीं जाता है. शास्त्रम असंयमीलोकोंके साथ संसर्ग और सुख में आदर करना ये यात मुनिओंके लिये निषिद्ध मानी है, परंतु इनमें जो अनुरक्त हैं व स्वेच्छासे प्रवर्तते हैं ऐसा समझना चाहिय. उनकी गणधरमर्गादा सूत्र में उल्लिखित नहीं है. अथवा लोकसुखका अर्थ यह भी होता है--यथेच्छ मिष्टाहारका भोजन करना, मृदुशम्यापर सोना, सुंदर घरमें निवास करना, एसे कार्यमें रत होना इसको लोक सुख कहते हैं, जो विषयासक्त मुनि हैं चे आचार्यत्वके योग्य नहीं है..
SORSANE
सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ ॥ सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।। २९१ ॥ यः शिष्यानिवादतान् दोषाणामाश्रयाय दुष्ठराज तया विनिघुद्धि भूपतिरहितं हार सुग्नमुजिझतः ॥?
हीनः संयमसारेण लिंगधारी स केवलम् ॥ २२० ।। विजयोदया--सीदावेदि मंद करोति । विहार चारित्रं रखवये प्रधान । सुहसीलगुपोर्हि सुखसमाधानाभ्यासैः ।