SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्वासा विजयोत्या-कुलगायतं कुलं, ग्राम, नारं. राज्यं च । पयद्विय परित्यज्य । हेसु कुणदि ममसिं जो प्रामादिपु पुन. यः करोति ममता । मदीय कुलं, असमदीयो ग्रामः, मगर, गव्यं चेति सोऽपि केवलं नमः । यो दि यत्र ममतां करोति रुस्य यदि शोमनं जातं तुष्यति अन्यथा द्वेष्ठि, संक्तियति वा । ततो रामद्वेषयोलभ च वर्तमानः असंयतो यवतीति भावः । लादिममकारकारिणोऽपि महारा--पथि चस्पा । यो नत्र auni गोति सोमनातुति अन्यथा डि, मविलयले या। गमा मानियो वायां वयं न पाविति भावः । अर्थ- जो मुनि बुल, गांव, नगर र राज्यको हाडकर उनमें पुरः भागारमा अर्थात यह मेरा कुल, यह मेरा ग्राम है, यह मेरा शहर है, मेरा राज्य है ऐसा संकल्प रखता है. वह पत्तनम है. संयमसे राहत है. जो जिस पदार्थमें ममता करता है वह उसका शुभ होनस हर्षित होता है और अशुभ होनेस द्वेष करता है अथवा संक्लेश परिणाम करता है. इसलिये जो रागभाव, पभाव और लाभमें लीन होता है वह असंयत होता है ऐसा समझना चाहिये. अपरिस्सावी सम्म समपासी होहि सव्वकब्जेसु ॥ संरक्ख सचखंपि ब सबालउढाउलं गच्छं ॥ २९४ ॥ त्वं कार्येष्यपरिस्रावी समयखिलेष्वपि । भूत्वा विधानतो रक्ष बालमृद्धकुलं गणम् ॥ २९२ ।। विजयोदया-अपरिस्सायी गुरुरयमिति शंकां विहाय निगदितानामपराधानां प्रकटन मा स्थाः । समपासी वेष होहि कसु कार्येषु सम्यह समनश्यप य भय । संरक्ख सचापि प परिपालय स्थं नेत्रं य । कि सपालमाउलं गच्छं सवालैपुजैराकीण गणं । एवं संयमशैथिल्ये दोपानुदाय्य गणिनं गणरक्षायां नियुक्त मूलारा-अपास्साबी आलोचितदोषाप्रकाशको भय । समपासी समदर्शी । सचक्लुंथि निजनेत्रमिव समालबुद्धाचलं बालसहित वृद्धराकीर्णम ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy