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________________ मुलाराचना २२५ मूळारा - सांर्कलसो दुष्परिणामः, संततदुःखं वा । एतेनात्मविराधना क्षेषः सूचितः । संघटित संघट श्रीयंते यूकाद्याः कीटाद्याश्च । नो भागमःटः केशमाय इत्यर्थः । अर्थ - जूं और लिखाओंसे पीडित होने पर मनमें नवीन पापकर्मका आगमन कराने वाला अशुभ परिणाम - संक्कश परिणाम होजाता है. तथा इस परिणामसे पूर्ववद्धपापकर्म में अधिक अनुभव - रस बढ जाता है, इन जीवोंके द्वारा भक्षण किये जानेपर शरीर में दुःख होता है. अतः इससे आत्मविराधना होती है. जब इनके दंश करनेसे असह्य वेदना होती है तब मनुष्य मस्तक खुजाता है. मस्तक खुजानेसे जूं लीख आदिक जंतुओंका परस्पर मर्दन होकर नाश होता है, ऐसे दोषोंसे बचनेके लिये मुनिगण आगमके अनुसार केशलोच करते हैं. मस्तक, दादी और मूछके केशका लोच हाथोंकी अंगुलियोंसे करते हैं. दाहिने बाजूसे आरंभकर बायें तरफ आवर्त रूप करते हैं. इस लोचकी उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य मर्यादा दो मास, तीन मास और चार मासकी हैं. ऊपर लोच नहीं करनेसे होनेवाले दोष दिखाये हैं. एवं लोचाकरणे दोषानुद्भाव्य लोचे गुणवयापनाय गाथाश्रयमुत्तरम् - लोचकदे मुंडतं मुंडन्ते होइ णिब्बियारतं ॥ तो णिब्वियारकरणो पग्गहिददरं परक्कमदि ॥ ९० ॥ त्वं कुर्वतो लोमतो निर्विकारिता ॥ प्रकृष्टां कुरुते पेष्टां वीतरागमनास्ततः ॥ ९१ ॥ विजयोदया-- लोकदो लोचे कृतः स्थितः लोचकृतः सप्तमीति योगविभागात्समासः । तस्मिन लोच कृतं लोचस्थिते इति कचित् । अन्ये तु वदन्ति लोयगंदे इति परंतः लोचं गतः प्राप्तः लोचगतः तस्मिन्निति । अथवा कृतशब्दो भावसाधनः ततः सहक्षणा सक्षमी लोच एवं कृतं तस्मिन् । लोचकियायां सत्यां मुंड मुंडशिरस्कता नाम भवति । न मुंडशिरस्कता मुक्त्युपायो गुणोऽरत्नत्रयत्वादसत्याभिधानवत् तत्किमुकेनानेनानुपयोगिता गुणेनेत्याशंकायां आद्द - मुंडते दोदि णिब्वियारतं इति । मुंडते मुंडनायां सत्यां । होदि भवति । णिष्विगारतं निर्विकारता । बिकारो विक्रिया सलीलगमनशृंगारकथाकटाक्षेक्षणादिकः । तस्मान्निष्क्रान्तः सत्राप्रवृत्तः निर्विकारः तस्य भाषः निर्विकारता निर्विकारो भवति इति २९ अश्वासः २
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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