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________________ मूलारापना परवशस्य सत: पतनं या, तेषु वर्तमानेन यतिना ते फेशसम्माच्छिनो जीवा बाधां गच्छंतो दुष्परिहारा रक्षितुमशक्याः । दिठ्ठा प्रतिपद्माः । न केवलं त एवं अपि त्यागतुकाश्च कीटकादयस्तथा दुष्परिहारा दृष्टाः। एतेन हिंसादोष उक्तः । केशलोच नहीं करनेस कोनस दोष उत्पन्न होते है जिनका परिहार करनेके लिये मुनिगण लोच करते हैं ? ऐसी शंका होनेपर लोच न करनेसे जो दोपं हो जाते है उनका दो गाथाओंसे आचार्य वर्णन करते हैं। . अर्थ-तेल लगाना, अभ्यंगस्नान करना, सुगंधित पदार्थसे केशोका संस्कार करना, जलसे धोना इत्यादि क्रियायें न करनेसे केशो युका और लिखा गे जन्न वन होते हैं. जब वी त्पत्ति केशोमें होती है तब इनको वहसि निकालना बडा कठिन काम है. वे लिक्षादिक जंतु नटाइ वगैरहमें घुस जात हैं. मस्तकसे यदि किसी पदार्थका आश्रय लिया हो तो उसमें उनका प्रवेश होता है. जब निद्रा आती है तब मस्तकसे वे नीचे गिरते हैं. अन्य देशकालस्वभावभेदसे उत्पन्न हुए प्राणियोंसे इन लिक्षादि जंतुआको घाधा भी पोहोंचती है । अन्य देश, काल, स्वभावसे यह बाधा भी मिटाना बढा कठिन काम है. बाधाका दुष्परिहार होनेसे जीय भी परिवार होते है ऐसा कह सकते हैं. अन्य स्थलसे कीटादिक जीय आकर भी वे वहाँ ठहरते हैं उनको निकालते समय वे मर जानसे हिंसादोप उत्पन्न होगा. जुगाह य लिक्वाहिय वाधिनतस्स संकिलेसोय ।। संघटिजति तणमा लामा ॥ ॥ संलशः पीयमानस्य यूकान्दिक्षेण दुःसहः ॥ पीक्यत तच कंडता यता लोचस्ततो मतः ॥ ९० || विजयोदया--याहिं य युकाभिश्च । लिपन्याहि य लिक्षाभिश्च । गाधिज्जतस्म वाध्यमानस्य यतः । संकि लेस्रो य सङ्ग्रेशश्च । जायते इति शेषः । स च ऋशोऽशुभपरिणाम पायास्रयः । पूर्वोपात्तकमपुलरसाभिवई ननिपुणः । अथवा वाधिज्जतस्स भक्ष्यमाणम्य सकिलेसो य दुःख पा । तथा चोक्त-फ्लिश विबाधन इति । पतेनात्मविराधनादोरः सूचितः । अथ तद्भक्षण असहमानः कंडूयति तद दोपमाह-संघटिरजति य संघट्यंते ने यूकादयः । थागंतुकाच कंधणे कंफरणे । तेन दोषेण हेतुनासा आगमयः लोचः क्रियते इति शेषः । प्रदक्षिणावतः केशमधुविषयः हस्तांगुलीनिरव संपाद्यः द्वित्रिचतुमासगोचरः।। 1-1.0mmiaminimum
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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