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आश्वासः
मूलाराधना
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यावत् । तो ततः णिब्वियारकर णो विकाररहितक्रियः । पगडिददरं प्रगृहीततरं। परक्कमवि चेष्टते कारणत्रये इति शेषः रत्नत्रयोद्योगः परंपरया लोचस्योपयोगः समास्यातोऽनया गाथया । नमस्य मुंडस्य सविभ्रम गमनादिकं जनो दृष्य हसति, शोभते तरामियमस्य विलासिता पंरकस्य वामलोचनाविलास इयेति मन्यमानो निरस्तधिकारी मुक्तये केवलं घटते इत्यभिमायः॥
एवं लोचाकरणे दोषानुक्त्वा तत्करणे गुणान्वतुं गाथात्रयमाद्द
मूलारा-लोचकदे लोचस्य करणे मीत । णिब्वियारत्तं सन्डीलगमनहसनश्रृंगारकथायटानिरीक्षणादिलक्षणाधिकाररहिनत्वं । णिनियारकरणे वीतरागगमनादिमियः सन । परकमरि शुभमनोवाकायब्यापार प्रवर्तत इत्यर्थः । एतेन लोच; परंपर या रत्नत्रयोपयोगी भवतीत्युक्त प्रतिपत्तव्यम ।।
अब लोचके गुणोंका वर्णन आचार्य तीन गाथाओंसे करते है
अर्थ-लोच करनेपर ही शिरोमुंडन हुवा ऐसा माना जाता है. शंका शिरोमुंडन करना अर्थात् लोच करना मुक्तिका उपाय नहीं है पनि यह राय नहीं है, अतः लोच करना व्यर्थ है. इससे कोई गुणविशेष उत्पत्र नहीं होता है. इस शंकाका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं-शिरोमुंडन होनेपर निर्विकार प्रवृत्ति होती है. अर्थात केशलोच किया हुआ साधु लीलासे गमन करना, श्रृंगारिक कथायें कहना, कटाक्षसे अबलोकना- तिरछी नजरये देखना, इत्यादिक विकारभावसे प्रवृत्ति नहीं करता है. इस निर्विकारप्रवासे बह मुक्तिके उपायभूत रत्नत्रयमें खूब उद्योगशील बनता है. अतः लोच परंपरथा रत्नत्रयमें प्रवृत्ति होनेके लिये कारण होता है ऐसा इस गाथासे सिद्ध हुवा. नन और मुंडितमस्तक मैं यदि हावभावसे गमन करूंगा और इधर उधर कटाक्षपात करते चलूंगा तो मेरेको देखकर लोग इसँगे और वीके विलासके समान इस हिजडेका यह विलास शोभा पाता है ऐसा कहेंगे ऐसा मनमें विचार करके साधु संपूर्ण विकारभावाको त्याग करके केवल मुक्तीके लिये भयत्न करते हैं. ऐसा अभिप्राय समझना.
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अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुबयादि। साधीणदा य णिदोसदा य देहे य जिम्ममदा ॥ ९१ ॥