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मूलाराधना
आश्वास
करते हैं. जिनमंदिरादिकोंमें अनुज्ञा लेकर वे रहते हैं, जिनके स्वामीका परिज्ञान नहीं है ऐसे मंदिरों में जिनके ये स्थान हैं वे यक्षादिक हमको आज्ञा देवें ऐसा बोलकर वहां निवास करते हैं. असीधिका व निषेधिका ये दोन विधि बाहर निकलनेके और अंदर प्रवेश करनेके समय करते हैं, निर्देशको छोडकर आकीके दश प्रकारके समाचारों में वे प्रवृत्ति करते हैं. उपकरणादिकाको देना, और ग्रहण करना, अनुपालन करना, बिनय करना, बंदना करना, अन्योन्य गंभाषण करना इन बातोंका मंधक माथ बे न्याग करते हैं. गृहस्थ अथवा अन्य लिंगिधोने साधुओन योग्य बस्तु दी तो वे लेते हैं. परंतु उनके साथ भी विनय, चंदना वंगर बातें वे नहीं करन है. तीन, पांच, सात और नो ऐसे उन मुनिओंका दानादि विधि परस्पर होना है,
कप्पटिदोणुकप्पीइति-कल्पस्थित आचार्य और परिवार गंयम पालनवाले दूसरे मुनि इनका परस्पर व्यवहार होता है अर्थात् महायता देना, ग्रहण करना, एक स्थानमें निवास करना, वंदना करना और परस्पर बोलना ये विधि होते हैं. जो पीछेसे परिहार संयम धारण करते है व अनुपरिहारी हैं। चे परिहारीके साथ संत्राम, वंदना, विनय, अनुपालना ये विधि करते हैं. अनुपरिहारी परिहारसंयममें पूर्ण प्रवेश करनेवाले मुनिके माथ चंदना, संचास मुंभापण ये विधि करते हैं. कल्पस्थित आचार्य मुनि अनुपरिहार्गके माथ ग्रहण, संबाम स्थान ये विधि करते है.
परिहारगंधममें पूर्ण अवश करनेवाले मुनि अपन गाधीक साथ अर्थात परिहारमयम पण धारण करने वालोंके साथ संवास ही विधि करते हैं दूसरा विधि नहीं करते है, कल्पस्थित आचार्य इतर मुनिक साथ रहत हैं च प्रसनतास भाषण करते हैं. कलपस्थितको अब अनुकल्पी वंदन करते हैं तत्र कल्पस्थित धर्मलाभ गया कहते हैं. गृहस्थ अन्य धर्मी साधुओंको मार्गका संशय हो तो पूछते हैं व गणके साध बोलते है. जहां माधर्मिक मुनि रहते हैं उनको देखकर अथवा सुनकर उनके क्षेत्रकी प्रशंसा नहीं करते हैं, तो बंदनादिक क्यों करेंगे? [ इन गाथाओंका अर्थ संपूर्ण तया ध्यानमें नहीं आता है. भूल हुई होगी. पाठक सुधार लेवे.] इस रीतीसे कल्पोक्त सर्व कार्य जानना चाहिये.
ये परिहार संयमी तीन भाषाओंको छोडकर मौनव्रतको धारण करते हैं. किसीने प्रश्न पूछा तो उसका संदेह दूर करना, धर्मकार्यमें अनुज्ञा देना और स्वयं प्रश्न करना ऐसी तीन भापायें वे बोलते हैं. विहार करते समय मार्गके
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